SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 440
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, १, ८०.] संत-परूवणाणुयोगदारे जोगमगणापरूवणं [३२१ सोऽपि किमिति तयोर्न स्यादिति चेत्स्वाभाव्यात् । नारकाणामग्निसम्बन्धाद्भस्मसाद्भावमुपगतानां पुनर्भस्मनि समुत्पद्यमानानामपर्याप्ताद्धायां गुणद्वयस्य सत्त्वाविरोधान्नियमेन पर्याप्ता इति न घटत इति चेन्न, तेषां मरणाभावात् । भावे वा न ते तत्रोत्पद्यन्ते, ‘णिरयादो णेरइया उवद्विदसमाणा णो णिरयगदि जादि णो देवगदि जादि, तिरिक्खगदि मणुसगदिं च जादि ' इत्यनेनार्षेण निषिद्धत्वात् । आयुषोऽवसाने नियमाणानामेष नियमश्चेन्न, तेषामपमृत्योरसत्वात् । भस्मसाद्भावमुपगतदेहानां तेषां कथं पुनर्मरणमिति चेन्न, देहविकारस्यायुर्विच्छित्त्यनिमित्तत्वात् । अन्यथा वालावस्थातः प्राप्तयौवनस्यापि मरणप्रसङ्गात् । शंका- इसप्रकारके परिणाम उन दो गुणस्थानों में क्यों नहीं होते हैं ? समाधान-क्योंकि, ऐसा स्वभाव ही है। शंका- अग्निके संबन्धसे भस्मीभावको प्राप्त हुए और फिर भी उसी भस्ममें होनेवाले नारकियोंके अपर्याप्त कालमें इन दो गुणस्थानोंके होनेमें कोई विरोध नहीं भाता है, अर्थात् छेदन भेदन आदिसे नष्ट हुए शरीरके पश्चात् पुनः उन्हीं अवयवोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके सासादन और मिश्र गुणस्थान माननेमें कोई विरोध नहीं आता है, इसलिये इन गुणस्थानों में नारकी नियमसे पर्याप्तक होते हैं, यह नियम नहीं बनता है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, अग्नि आदि निमित्तोंसे नारकियोंका मरण नहीं होता है। यदि नारकियोंका मरण हो जावे, तो पुनः वे वहीं पर उत्पन्न नहीं होते है, क्योंकि, 'जिनकी आयु पूर्ण हो गई है ऐसे नारकी जीव नरकगतिसे निकलकर पुनः नरकगतिको नहीं जाते हैं, देवगतिको नहीं जाते हैं । किंतु तिर्यंचगति और मनुष्यगतिको जाते हैं। इस आर्ष वचनके अनुसार नारकियोंका पुनः नरकगतिमें उत्पन्न होना निषिद्ध है। शंका--आयुके अन्तमें मरनेवाले नारकियोंके लिये ही यह सूत्रोक्त नियम लागू होना चाहिये ? समाधान-नहीं, क्योंकि, नारकी जीवोंके अपमृत्युका सद्भाव नहीं पाया जाता है। अर्थात् नारकियोंका आयुके अन्तमें ही मरण होता है, बीच में नहीं। शंका--यदि उनकी अपमृत्यु नहीं होती है, तो जिनका शरीर भस्मीभावको प्राप्त हो गया है ऐसे नारकियोंका पुनर्मरण कैसे बनेगा ? समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, देहका विकार आयुकर्मके विनाशका निमित्त नहीं है। अन्यथा जिसने बाल-अवस्थाके पश्चात् यौवन-अवस्थाको प्राप्त कर लिया हैऐसे जीवके भी मरणका प्रसंग आ जायगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy