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________________ १, १, ७०.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोगमग्गणापरूवणं [३११ 'अपि' शब्दः समुच्चयार्थे दृष्टव्यः । कः समुच्चयः ? एकस्य निर्दिष्टप्रदेशद्विप्रभृतेरुपनिपातः समुच्चयः । द्विरस्ति-शब्दोपादानमनर्थकमिति चेन्न, विस्तररुचिप्तत्त्वानुग्रहार्थ त्वात् । संक्षेपरुचयो नानुग्रहीताश्चेन्न, विस्तररुचिसत्त्वानुग्रहस्य संक्षेपरुचिसत्त्वानुग्रहाविनामावित्वात् । पर्याप्तस्यैव एते योगाः भवन्ति, एते चोभयोरित वचनमाकर्ण्य पर्याप्तिविषयजातसंशयस्य शिष्यस्य सन्देहापोहनाथेमुत्तरसूत्राण्यभाणीत् छ पजत्तीओ, छ अपज्जत्तीओ॥ ७० ॥ पर्याप्तिनिःशेषलक्षणोपलक्षणार्थ तत्संख्यामेव प्रागाह । आहारशरीरेन्द्रियोच्छासनिःश्वासभाषामनसां निष्पत्तिः पर्याप्तिः । ताश्च षट् भवान्ति, आहारपर्याप्तिः शरीरपर्याप्तिः सूत्रमें जो अपि शब्द आया है वह समुच्चयार्थक जानना चाहिये। शंका--समुच्चय किसे कहते हैं ? समाधान-किसी एक वस्तुके निर्दिष्ट स्थानमें दो आदि बार प्राप्त होनेको समुच्चय कहते हैं। शंका---सूत्रमें दो बार अस्ति शब्दका ग्रहण करना निरर्थक है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, विस्तारसे समझनेकी रुचि रखनेवाले शिष्योंके अनुग्रहके लिये सूत्रमें दो बार अस्ति पदका ग्रहण किया। शंका-तो इस सूत्रमें संक्षेपसे समझनेकी रुचि रखनेवाले शिष्य अनुगृहीत नहीं किये गये? समाधान-नहीं, क्योंकि, संक्षेपसे समझनेकी रुचि रखनेवाले जीवोंका अनुग्रह विस्तारसे समझनेकी रुचि रखनेवाले जीवोंके अनुग्रहका अविनाभावी है । अर्थात्, विस्तारसे कंथन कर देने पर संक्षेपरुचि शिष्योंका काम चल ही जाता है, इसलिये यहां पर विस्तारसे कथन किया है। ये योग पर्याप्तकके ही होते हैं और ये योग दोनोंके होते हैं, इस वचनको सुनकर जिन शिष्योंके पर्याप्तिके विषयमें संशय उत्पन्न हो गया है, उनके संदेहको दूर करनेके लिये आगेका सूत्र कहा गया है छह पर्याप्तियां और छह अपर्याप्तियां होती हैं ॥ ७० ॥ पर्याप्तियोंके संपूर्ण लक्षणको बतलानेके लिये उनकी संख्या ही पहले कही गई है। आहार, शरीर, इन्द्रिय, उच्छासनिःश्वास, भाषा और मन, इनकी निष्पत्तिको पर्याप्ति कहते हैं । वे पर्याप्तियां छह होती हैं, आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, आनापान १ उत्पत्तिदेशमागतेन प्रथमं ये गृहीताः पुद्गलास्तेषां तथान्येषाम पि प्रतिसमयं गृह्यमाणानां तत्सम्पर्कतस्तदूपतया जातानां यः शक्तिविशेष आहारादिपुद्गलखलरसरूपतापादनहेतुर्यथोदरान्तर्गतानां पुद्गलविशेषाणामाहारपुद्गलखलरसरूपतापरिणमनहेतुः सा पर्याप्तिः । जी. १ प्रति. ( अमि. रा. को., पज्जत्ति.) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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