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३१.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १, ६८. प्राक् सामान्येन योगस्य सत्त्वमभिधायेदानी व्यवच्छेद्येऽमुष्मिन् कालेऽस्य सत्त्वममुष्मिंश्च न सत्त्वमिति प्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाह
मणजोगो वचिजोगो पजत्ताणं अस्थि, अपज्जत्ताणं णत्थि॥६८॥
क्षयोपशमापेक्षया अपर्याप्तकालेऽपि तयोः सत्त्वं न विरोधमास्कन्देदिति चेन्न, वाङ्मनोभ्यामनिष्पन्नस्य तद्योगानुपपत्तेः । पर्याप्तानामपि विरुद्धयोगमध्यासितावस्थायां नास्त्येवेति चेन्न, सम्भवापेक्षया तत्र तत्सत्वप्रतिपादनात्, तच्छक्ति सत्त्वापेक्षया वा । सर्वत्र समुच्चयार्थावद्योतक-च-शब्दाभावेऽपि समुच्चयार्थः पदैरेवावद्योत्यत इत्यवसेयः।
काययोगसामान्यस्य सत्त्वप्रदेशप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाहकायजोगो पज्जत्ताण वि अस्थि, अपज्जत्ताण वि अत्थि ॥६९॥
पहले सामान्यसे योगका सत्त्व कहकर, अब जिस कालमें योगका सद्भाव नहीं पाया जाता है, ऐसा निराकरण करने योग्य कालके होने पर, इस कालमें इस योगका सत्त्व है, और इस कालमें इस योगका सत्त्व नहीं है, इस बातके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
मनोयोग और वचनयोग पर्याप्तकोंके ही होते हैं, अपर्याप्तकोंके नहीं होते ॥६॥
शंका-क्षयोपशमकी अपेक्षा अपर्याप्त कालमें भी वचनयोग और मनोयोगका पाया जाना विरोधको प्राप्त नहीं होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, जो क्षयोपशम वचनयोग और मनोयोगरूपसे उत्पन्न नहीं हुआ है, उसे योग संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकती है।
_शंका-पर्याप्तक जीवोंके भी विरुद्ध योगको प्राप्त होनेरूप अवस्थाके होने पर विवक्षित योग नहीं पाया जाता है ?
विशेषार्थ-शंकाकारका यह अभिप्राय है कि जिसप्रकार अपर्याप्त अवस्थामें मनो. योग और वचनयोगका अभाव बतलाया गया है, उसीप्रकार पर्याप्त अवस्थामें भी किसी एक योगके रहने पर शेष दो योगोंका अभाव रहता है, इसलिये उस समय भी उन दो योगें के अभावका कथन करना चाहिये।
समाधान-नहीं, क्योंकि, पर्याप्त अवस्थामें किसी एक योगके रहने पर शेष योग संभव हैं, इसलिये इस अपेक्षासे वहां पर उनके अस्तित्वका कथन किया जाता है। अथवा, उस समय वे योग शक्तिरूपसे विद्यमान रहते हैं, इसलिये इस अपेक्षासे उनका आस्तित्व कहा जाता है।
इन सभी सूत्रों में समुच्चयरूप अर्थको प्रगट करनेवाला च शब्द नहीं होने पर भी सूत्रोक्त पदोंसे ही समुच्चयरूप अर्थ प्रगट हो जाता है, ऐसा समझ लेना चाहिये।
अब सामान्य काययोगकी सत्ताके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंकाययोग पर्याप्तकोंके भी होता है, और अपर्याप्तकोंके भी होता है ।। ६९॥
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