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________________ १, १, ६२.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे जोगमग्गणापख्वणं [३०५ कायजोगो ओरालियकायजोगो ओरालियमिस्सकायजोगो एइंदिय-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि ति ॥ ६१ ॥ काययोग एवेत्यवधारणाभावान वाङ्मनसोरभावः। एवं शेषाणामपि वाच्यमिति । एकेन्द्रियप्रभृत्यासयोगकेवलिनः औदारिकमिश्रकाययोगिनः इति प्रतिपाद्यमाने देशविरतादिक्षीणकषायान्तानामपि तदस्तित्वं प्राप्नुयादिति चेन्न, प्रभृतिशब्दोऽयं व्यवस्थायां प्रकारे च वर्तते । अत्र प्रभृतिशब्दः प्रकारे परिगृह्यते, यथा सिंहप्रभृतयो मृगा इति । ततो न तेषां ग्रहणम् । व्यवस्थावाचिनोऽपि ग्रहणे न दोषः 'ओरालिय-मिस्स-कायजोगो अपज्जत्ताणं । ति बाधकसूत्रसम्भवाद्वा । वैक्रियककाययोगाधिपतिप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाह वेउब्वियकायजोगो वेउब्वियमिस्सकायजोगो सण्णिमिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइहिति ॥ ६२ ॥ सामान्यसे काययोग और विशेषकी अपेक्षा औदारिक काययोग और औदारिकमिश्र काययोग एकेन्द्रियसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थानतक होते हैं ॥ ६१॥ काययोग ही होता है, इसप्रकार अवधारण नहीं होनेसे पूर्वोक्त गुणस्थानों में वचनयोग और मनोयोगका अभाव नहीं समझना चाहिये। इसीप्रकार शेष योगोंका भी कथन करना चाहिये। शंका-एकेन्द्रियसे लेकर सयोगिकेवलीतक औदारिकमिश्रकाययोगी होते हैं ऐसा कथन करने पर देशविरत आदि क्षीणकषायपर्यन्त गुणस्थानों में भी औदारिकमिश्रयोगका सद्भाव प्राप्त हो जायगा? समाधान-नहीं, क्योंकि, यह प्रभृति शब्द व्यवस्था और प्रकाररूप अर्थमें रहता है। उनमेंसे यहां पर प्रभृति शब्द प्रकाररूप अर्थमें ग्रहण किया गया है। जैसे, सिंह आदि मृग। इसलिये औदारिकमिश्रयोगमें देशविरत आदि क्षीणकषायतकके गुणस्थानोंका ग्रहण नहीं होता है। अथवा, व्यवस्थावाची भी प्रभृति शब्दके ग्रहण करने पर कोई दोष नहीं आता है। अथवा, 'ओरालियमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं' अर्थात् औदारिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकोंके होता है, इस बाधक सूत्रके संभव होनेके कारण भी पर्वोक्त दोष नहीं आता है। अब वैक्रियककाययोगके स्वामीका प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं वैक्रियककाययोग और वैक्रियकमिश्रकाययोग संक्षी मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टितक होते हैं ॥ ६२॥ १ ओरालं पञ्जत्ते थावरकायादि जाव जोगो त्ति । तम्मिस्समपञ्जते चदुगुणठाणेसु णियमेण ॥ गो. जी. ६८०. २ जी. सं. सू. ७६. ३ वेगुव्वं पज्जत्ते इदरे खल होदि तस्स मिस्सं तु । सुरणिरयचउट्ठाणे मिस्से ण हि मिस्सजोगो ह॥ गो. जी. ६८२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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