________________
३०४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १,६०. एदिस्से गाहाए उवएसो किण्ण गहिओ ? ण, भज्जत्ते कारणाणुवलंभादो ।
__ जेसि आउ-समाई णामा गोदाणि वेयणीयं च ।।
ते अकय-समुग्घाया वच्चंतियरे समुग्घाए ॥ १६८ ॥ णेदं भज्जत्ते कारणं सव्व-जीवेसु समेहि अणियष्टि-परिणामेहि पत्त-घादाणं द्विदीणमाउ-समाणत्त-विरोहादो, अघाइ-तियस्स खीण-कसाय-चरिम-समए जहण्ण-द्विदिसंतस्स वि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभाग-पमाणनुवलंभादो । नागमस्तर्कगोचर इति चेन्न, एतयोर्गाथयोरागमत्वेन निर्णयाभावाद् । भावे वास्तु गाथयोरेवोपादानम् ।
इदानी काययोगस्याध्वानज्ञापनार्थमुत्तरसूत्रचतुष्टयमाह
इस पूर्वोक्त गाथाका उपदेश क्यों नहीं ग्रहण किया है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, इसप्रकार विकल्पके मानने में कोई कारण नहीं पाया जाता है, इसलिये पूर्वोक्त गाथाका उपदेश नहीं ग्रहण किया है।
जिन जीवोंके नाम, गोत्र और वेदनीयकर्मकी स्थिति आयुकर्मके समान होती है वे समुद्धात नहीं करके ही मुक्तिको प्राप्त होते हैं। दूसरे जीव समुद्धात करके ही मुक्त होते हैं ॥ १६८॥
इसप्रकार पूर्वोक्त गाथामें कहे गये अभिप्रायको तो किन्ही जीवोंके समुद्धातके होनेमें और किन्हीं जीवोंके समुद्धातके नहीं होनेमें कारण कहा नहीं जा सकता है, क्योंकि, संपूर्ण जीवों में समान अनिवत्तिरूप परिणामोंके द्वारा कर्मस्थितियोंका घात पाया जाता है , अतः उनका आयुके समान होनमें विरोध आता है। दूसरे, क्षीणकषाय गुणस्थानके चरम समयमें तीन अघातिया कर्मों की जघन्य स्थिति पल्योपमके असंख्यातवें भाग सभी जीवोंके पाई जाती है, इसलिये भी पूर्वोक्त अर्थ ठीक प्रतीत नहीं होता है।
शंका- आगम तो तर्कका विषय नहीं है, इसलिये इसप्रकार तर्क के बलसे पूर्वोक्त गाथाओंके अभिप्रायका खण्डन करना उचित नहीं है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, इन दोनों गाथाओंका आगमरूपसे निर्णय नहीं हुआ है। अथवा, यदि इन दोनों गाथाओंका आगमरूपसे निर्णय हो जाय तो इनका ही ग्रहण रहा आवे ।
अब काययोगका गुणस्थानों में ज्ञान करानेके लिये आगेके चार सूत्र कहते हैं
२१०५. षण्मासायुषि शेषे स्यादुत्पन्न यस्य केवलम् । समुद्धातमसौ याति केवली नापरः पुनः॥ पंचसं. ३२७. षण्मासाधिकायुको लभते केवलोद्गमम् । करोत्यसौ समुद्धातमन्ये कुर्वन्ति वा न वा ।। गुण. क्र. प्र. ९४.
१ मूलारा. २१०६. परं च तत्र चतुर्थचरणे पाठभेदोऽयम्-' जिणा उवणमंति सेलेसिं'। जेसिं हवंति विसमाणि णामगोदाइं वेदणीयाणि । ते अकदसमुग्धादा जिणा उवणमति सेलेसिं ॥ मूलारा. २१०७.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org