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१, १, ५६.] संत-पख्वणाणुयोगदारे जोगमगणापरूवणं [२८९ दशापि सत्यानीति ।
शेषवचसोः गुणस्थाननिरूपणार्थमुत्तरसूत्रमाह
मोसवचिजोगो सच्चमोसवचिजोगो सण्णिमिच्छाइट्टि-प्पहुडि जाव खीण-कसाय-वीयराय-छदुमत्था त्ति ॥ ५५॥
क्षीणकषायस्य वचनं कथमसत्यमिति चेन्न, असत्यनिबन्धनाज्ञानसत्त्वापेक्षया तत्र तत्सत्त्वप्रतिपादनात् । तत एव नोभयसंयोगोऽपि विरुद्ध इति । वाचंयमस्य क्षीणकषायस्य कथं वाग्योगश्चेन्न, तत्रान्तर्जल्पस्य सत्त्वाविरोधात् ।
काययोगसंख्याप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाह
कायजोगो सत्तविहो ओरालियकायजोगो ओरालियमिस्सकायजोगो वेउब्वियकायजोगो वेउब्वियमिस्सकायजोगो आहारकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो कम्मइयकायजोगो चेदि ॥ ५६ ॥
औदारिकशरीरजनितवीर्याजीवप्रदेशपरिस्पन्दनिबन्धनप्रयत्नः औदारिककाययोगः। नहीं आता है, इसलिये उनमें दशों प्रकारके सत्यवचन होते हैं।
शेष वचनयोगोंके गुणस्थानों में निरूपण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
मृषावचनयोग और सत्यमृषावचनयोग संशी मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय-वतिरागछमस्थ गुणस्थानतक पाये जाते हैं ॥ ५५ ॥ ।
शंका-जिसकी कषायें क्षीण हो गई हैं ऐसे जीवके वचन असत्य कैसे हो सकते हैं ?
समाधान-ऐसी शंका व्यर्थ है, क्योंकि, असत्यवचनका कारण अशान बारहवें गुणस्थानतक पाया जाता है, इस अपेक्षासे वहां पर असत्यवचनके सद्भावका प्रतिपादन किया है । और इसीलिये उभयसंयोगज सत्यमृषावचन भी बारहवें गुणस्थानतक होता है, इस कथनमें कोई विरोध नहीं आता है।
शंका-वचनगुप्तिका पूरी तरहसे पालन करनेवाले कषायरहित जीवोंके वचनयोग कैसे संभव है?
समाधान नहीं, क्योंकि, कषायरहित जीवोंमें अन्तर्जल्पके पाये जानेमें कोई विरोध नहीं आता है।
अब काययोगकी संख्याके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
काययोग सात प्रकारका है, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियककाययोग, वैक्रियकमिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कार्मणकाय' योग ॥५६॥
औदारिक शरीरद्वारा (औदारिक वर्गणाओंसे) उत्पन्न हुई शक्तिसे जीवके प्रदेशोंमें
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