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२८८] छक्खंडागमे जीवाणं
[१, १, ५४. केवलज्ञानेन व्यभिचारात् । समनस्कानां यत्क्षायोपशमिकं ज्ञानं तन्मनोयोगात्स्यादिति
चेन्न, इष्टत्वात् । मनोयोगाद्वचनमुत्पद्यत इति प्रागुक्तं तत्कथं घटत इति चेन्न, उपचारेण तत्र मानसस्य ज्ञानस्य मन इति संज्ञां विधायोक्तत्वात् । कथं विकलेन्द्रियवचसोऽसत्यमोषत्वमिति चेदनध्यवसायहेतुत्वात् । ध्वनिविषयोऽध्यवसायः समुपलभ्यत इति चेन, वक्तुरभिप्रायविषयाध्यवसायाभावस्य विवक्षितत्वात् ।
सत्यवचसो गुणनिरूपणार्थमुत्तरसूत्रमाह
सच्चवचिजोगो सण्णिमिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि ति ॥ ५४॥
दशविधानामपि सत्यानामेतेषु गुणस्थानेषु सत्वस्य विरोधासिद्धेः तत्र भवन्ति समाधान- नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने पर केवलज्ञानसे व्यभिचार आता है।
शंका-तो फिर ऐसा माना जाय कि समनस्क जीवोंके जो क्षायोपशमिक ज्ञान होता है वह मनोयोगसे होता है ?
समाधान- यह कोई शंका नहीं, क्योंकि, यह तो इष्ट ही है।
शंका- मनोयोगसे वचन उत्पन्न होते हैं, यह जो पहले कहा जा चुका है वह कैसे घटित होगा?
समाधान- यह शंका कोई दोषजनक नहीं है, क्योंकि, 'मनोयोगसे वचन उत्पन्न होते हैं। यहां पर मानस शानकी 'मन' यह संज्ञा उपचारसे रखकर कथन किया है।
शंका- विकलेन्द्रियोंके वचनोंमें अनुभयपना कैसे आ सकता है ?
समाधान-विकलेन्द्रियोंके वचन अनध्यवसायरूप ज्ञानके कारण हैं, इसलिये उन्हें अनुभयरूप कहा है।
शंका- उनके वचनोंमें ध्वनिविषयक अध्यवसाय अर्थात् निश्चय तो पाया जाता है, फिर उन्हें अनध्यवसायका कारण क्यों कहा जाय ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, यहां पर अनध्यवसायसे वक्ताका अभिप्रायविषयक अध्यवसायका अभाव विवक्षित है।
अब सत्यवचनयोगका गुणस्थानों में निरूपण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंसत्यवचनयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टीसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थानतक होता है ॥५४॥ दशों ही प्रकारके सत्यवचनोंके सूत्रोक्त तेरह गुणस्थानों में पाये जानेमें कोई विरोध
१ जणपदसम्मदिठवणाणामे रूवे पच्च ववहारे । संभावणे य भावे उवमाए दसविहं सच्चं ॥ भत्तं देवी चंदप्पहपडिमा तह य होदि जिणदत्तो। सेदो दिग्धो रज्झदि करो त्ति य जे हवे वयणं । गो. जी, २२२, २२३.
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