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२८६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, ५२. प्रमादविरोधित्वादिति न, रजोजुषां विपर्ययानध्यवसायाज्ञानकारणमनसः सत्त्वाविरोधात् । न च तद्योगात्प्रमादिनस्ते प्रमादस्य मोहपर्यायत्वात् ।
वाग्योगभेदप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाह
वचिजोगो चउबिहो सच्चवचिजोगो मोसवचिजोगो सच्चमोसवचिजोगो असच्चमोसवचिजोगो चेदि ॥ ५२ ॥
चतुर्विधमनोभ्यः समुत्पन्नवचनानि चतुर्विधान्यपि तद्वयपदेशं प्रतिलभन्ते तथा प्रतीयते च । उक्तं च
दसविह-सच्चे वयणे जो जोगो सो दु सच्चवचिजोगो । तबिवरीदो मोसो जाणुभयं सच्चमोसं ति ॥ १५६ ।। जो णेव सच्च-मोसो तं जाण असच्चमोसवचिजोगो । अमणाणं जा भासा सण्णीणामंतणीयादी ॥ १५७ ॥
रहा आवे, परंतु बाकीके दो अर्थात् असत्यमनोयोग और उभयमनोयोगका सद्भाव नहीं हो सकता है, क्योंकि, इन दोनों में रहनेवाला अप्रमाद असत्य और उभय मनके कारणभूत प्रमादका विरोधी है ? अर्थात् क्षपक और उपशमक प्रमादरहित होते हैं, इसलिये उनके असत्यमनोयोग और उभयमनोयोग नहीं पाये जा सकते हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, आवरणकर्मसे युक्त जीवोंके विपर्यय और अनध्यवसायरूप अज्ञानके कारणभूत मनके सद्भाव मान लेनेमें कोई विरोध नहीं आता है। परंतु इसके संबन्धसे क्षपक या उपशमक जीव प्रमत्त नहीं माने जा सकते हैं, क्योंकि, प्रमाद मोहकी पर्याय है।
अब वचनयोगके भेदोंके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
धचनयोग चार प्रकारका है, सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, उभयवचनयोग, और अनुभयवचनयोग ॥५२॥
चार प्रकारके मनसे उत्पन्न हुए चार प्रकारके वचन भी उन्हीं संज्ञाओंको प्राप्त होते हैं और ऐसी प्रतीति भी होती है। कहा भी है
दश प्रकारके सत्यवचनमें वचनवर्गणाके निमित्तसे जो योग होता है उसे सत्यवचनयोग कहते हैं। उससे विपरीत योगको मृषावचनयोग कहते हैं। सत्यमृषारूप वचन योगको उभयवचनयोग कहते हैं ॥ १५६॥
जो न तो सत्य रूप है और न मृषारूप ही है वह असत्यमृषावचनयोग है। असंही
१ गो. जी. २२०. २ गो.जी. २२१.
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