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________________ १, १, ४६. ] संत-परूवणाणुयोगद्वारे कायमम्गणापरूवणं [ २७७ वनस्पतिप्रभृतयो वादरा इति यावत् । न विधातव्यमेतेषां बादरत्वं प्रत्यक्षसिद्धत्वादिति चेन्न, सौक्ष्म्याभावप्रतिपादनफलत्वात् । द्विविधकायातीतजीवास्तित्वप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाह ते परमकाइया चेदि ॥ ४६ ॥ तेन द्विविधकायात्मकजीवराशेः परं बादरसूक्ष्मशरीरनिबंधनकर्मातीतत्वतोऽशरीराः सिद्धाः अकायिकाः । जीवप्रदेशप्रचयात्मकत्वात्सिद्धा अपि सकाया इति चेन्न, तेषामनादि - बन्धनबद्धजीव प्रदेशात्मकत्वात् । अनादिप्रयोऽपि कायः किन्न स्यादिति चेन्न, मूर्तानां पुद्गलानां कर्मनो कर्मपर्यायपरिणतानां सादिसान्तप्रचयस्य कायत्वाभ्युपगमात् । ' इति ' बादर एकेन्द्रिय पद सूत्रमें ग्रहण किया गया है । इस पदके ग्रहण करनेसे प्रत्येकशरीर वनस्पति आदि सभी जीव बादर ही होते हैं, यह बात स्पष्ट हो जाती है । - शंका- - इस सूत्र में इन जीवोंके बादरपनेका कथन नहीं करना चाहिये, क्योंकि, ये जीव बादर ही होते हैं यह बात प्रत्यक्षसिद्ध है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, इन जीवोंके केवल बादरत्वके प्रतिपादन करनेके लिये यह सूत्र नहीं रचा गया है, किंतु इन जीवोंके सूक्ष्मताके अभावका प्रतिपादन करना ही इस सूत्र के बनानेका फल है । अब त्रस और स्थावर इन दोनों कार्योंसे राहत जीवोंके अस्तित्व के प्रतिपादन करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं स्थावर और बादरकायसे परे कायरहित अकायिक जीव होते हैं ॥ ४६ ॥ जो उस स और स्थावररूप दो प्रकारकी कायराशिसे परे हैं वे सिद्ध जीव बादर और सूक्ष्म शरीर के कारणभूत कर्मसे रहित होनेके कारण अशरीर होते हैं, अतएव अकायिक कहलाते हैं । शंका - जीब प्रदेशों के प्रत्रयरूप होनेके कारण सिद्ध जीव भी सकाय हैं, फिर उन्हें अकाय क्यों कहा ? समाधान- नहीं, क्योंकि, सिद्ध जीव अनादिकालीन स्वाभाविक बन्धनसे बद्ध जीव प्रदेशस्वरूप हैं, इसलिये उसकी अपेक्षा यहां कायपना नहीं लिया गया है । शंका - अनादिकालीन आत्म- प्रदेशों के प्रचयको काय क्यों नहीं कहा ? समाधान- नहीं, क्योंकि, यहां पर कर्म और नोकर्मरूप पर्यायसे परिणत मूर्त पुद्गलोके सादि और सान्त प्रदेश प्रचयको ही कायरूपसे स्वीकार किया है । विशेषार्थ - यद्यपि पांच अस्तिकायोंमें सिद्ध जीवोंका भी ग्रहण हो जाता है । फिर भी यहां पर अनादिकालीन स्वाभाविक बन्धन से बद्ध जीव- प्रदेशों के प्रचयरूप कायकी Jain Education International For Private & Personal Use Only 1.. www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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