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________________ २७४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाण [१, १, ४३. विहि तीहि चउहि पंचहि सहिया जे इंदिएहि लोयग्मि । ते तसकाया जीवा णेया वीरोवरसेण ॥ १५४ ॥ पृथिवीकायिकादीनां स्वरूपमभिधाय साम्प्रतं तेषु गुणस्थाननिरूपणार्थमुत्तरसूत्रमाह-- पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणप्फइकाइया एकम्मि चेय मिच्छाइटि-हाणे ॥४३॥ आह, आप्तागमविषयश्रद्धारहिता मिथ्यादृष्टयो भण्यन्ते । श्रद्धाभावश्चाश्रद्धेयवस्तुपरिज्ञानपूर्वकः । तथा च पृथिवीकायादीनामाप्तागमविषयपरिज्ञानोज्झितानां कथं मिथ्या वनस्पतियां सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येकके भेदसे दोनों प्रकारकी कही गई है ॥१५३॥ लोकमें जो जीव दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पांच इन्द्रियोंसे युक्त हैं उन्हें वीर भगवानके उपदेशसे त्रसकायिक जीव जानना चाहिये ॥ १५४॥ पृथिवीकायिक आदि जीवोंके स्वरूपका कथन करके अब उनमें गुणस्थानोंका निरूपण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीव मिथ्यादृष्टि नामक प्रथम गुणस्थानमें ही होते हैं ॥ ४३ ॥ शंका-शंकाकार कहता है कि आप्त, आगम और पदार्थोकी श्रद्धासे रहित जीव मिथ्यादृष्टि कहे जाते हैं, और श्रद्धान करने योग्य वस्तुमें विपरीत ज्ञानपूर्वक ही अश्रद्धा अर्थात् मिथ्याभिनिवेश हो सकता है। ऐसी अवस्थामें आप्त, आगम और पदार्थके परिक्षानसे रहित पृथिवीकायिक आदि जीवोंके मिथ्यादृष्टिपना कैसे संभव है? अग्रबीजा जीवाः कोरंटकमल्लिका कुब्जकादयो येषामग्रं प्रारोहति । पोरवीया पौरबीजजीवा इक्षुवेत्रादयो येषां पोरप्रदेशः प्रारोहति । कंदा कन्दजीवाः कदलीपिण्डालुकादयो येषां कन्ददेशः प्रादुर्भवति । तह तथा । खधवीया स्कन्धबीजजीवाः शल्लकीपालिभद्रकादयो येषां स्कन्धदेशो रोहति । बीयत्रीया बीजबीजा जीवा यवगोधूमादयो येषां क्षेत्रोदकादिसामग्न्याः प्ररोहः । साच्छिमा य सम्मूच्छिमाश्च मूलाद्यभावेऽपि येषां जन्म | xx पत्तेया प्रत्येकजीवाः पूगफलनालिकेरादयः । अणंतकाया य अनन्तकायाश्च स्नहीगुड्च्यादयः, ये छिन्ना भिन्नाश्च प्ररोहन्ति | xx स. टी. अग्गबीया मूलबीया खंधबीया चेवं पोरबीया य । बीयरुहा सम्मुच्छिम समासओवणसई जीवा ॥ आचा. नि. १३०॥ उत्त. ३६. ९३-१००। प्रज्ञा. १. २९-४४. १ गो. जी. १९८. २ कायानुबादेन पृथिवीकायादिषु वनस्पतिकायान्तेषु एकमेव मिथ्यादृष्टिस्थानम् । स. सि. १. ८ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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