SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 391
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७२ ] छक्खंडागमे जीवाणं [१, १, ४२. तसकाइया दुविहा, पज्जता अपज्जत्ता ॥ ४२ ॥ गतार्थत्वान्नास्यार्थ उच्यते । किं त्रसाः सूक्ष्मा उत बादरा इति ? बादरा एव न सूक्ष्माः। कुतः ? तत्सौम्यविधायका भावात् । बादरत्वविधायकार्पोभावे कथं तदवगम्यत इति चेन्न, उत्तरसूत्रतस्तेषां वादरत्वसिद्धे। के ते? धृथिवीकायादय इति चेदुच्यते - पुढवी य सकारा वालुवा य उबले सिलादि छत्तीसा' । पुढवीमया हु जीया णिदिवा जिणवरिंदेहि ॥ १४९ ।। असकायिक जीव दो प्रकारके होते हैं, पर्याप्त और अपर्याप्त ॥ ४२ ॥ गतार्थ होनेसे इस सूत्रका अर्थ नहीं कहते हैं। शंका-त्रस जीव क्या सूक्ष्म होते हैं अथवा बादर ? समाधान-त्रस जीव बादर ही होते हैं, सूक्ष्म नहीं होते। शंका-यह कैसे जाना जाय ? समाधान- क्योंकि त्रस जीव सूक्ष्म होते हैं, इसप्रकार कथन करनेवाला आगम प्रमाण नहीं पाया जाता है। शंका - त्रस जीवोंके बादरपनेका प्रतिपादन करनेवाला आगम प्रमाण भी तो अभी तक नहीं आया है, फिर यह कैसे जाना जाय कि वे बादर ही होते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि, आगे आनेवाले सूत्रसे त्रस जीवोंका बादरपना सिद्ध हो जाता है। शंका-वे पृथिवीकाय आदि जीव कौनसे हैं ? समाधान-जिनेन्द्र भगवान्ने पृथिवी, शर्करा, बालुका उपल और शिला आदिके भेदसे पृथिवीरूप छत्तीस प्रकारके जीव कहे हैं ॥ १४९ ॥ विशेषार्थ- ऊपर जो पृथिवीके अवान्तर भेदोंकी अपेक्षा पृथिवीकायिक जीव छत्तीस प्रकारके कहे हैं, वे इसप्रकार हैं: मट्टीरूप पृथिवी, गंगा आदि नदियों में उत्पन्न होनेवाली रूक्ष बालुका, तीक्ष्ण और चौकोर आदि आकारवाली शर्करा, गोल पत्थर, बड़ा पत्थर, समुद्रादिमें उत्पन्न होनेवाला नमक, लोहा, तांवा, जस्ता, सीसा, चांदी, सोना, वज्र (हीरा), हरिताल, इंगुल, मैनसिल, हरे रंगवाला सस्यक, अंजन, मूंगा, भोडल, चिकनी और चमकती हुई रेती, १ पुढवी य बालुगा सकरा य उवले सिला य लोणे य । अय तंव तउ य सीसय रुप्प सुवण्णे य वइरे य॥ हरिदाले हिंगुलए मणोसिला सस्सगंजण पवाले य | अब्भपडलब्भवाल य वादरकाया मणिविधीया ॥ गोमझगे य रुजगे अंके फलहे य लोहिदंके य । चंदप्पम वेरुलिए जलकंते सूरकते य ।। गेरुय चंदण बन्नग वगमोए तह मसारगल्लो य । ते जाण पुढविजीबा जाणित्ता परिहरेदव्वा ॥ मूलाचा. २०६-२०९ । आचा. नि. ७३-७६ । उत्त. ३६-७४-७७ । प्रज्ञा. १. १७. Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.or www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy