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________________ १, १, ४१.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे कायमग्गणापरूवणं [२७१ अस्थि अणता जीवा जेहि ण पत्तो तसाण परिणामो । भाव-कलंकइपउरा णिगोद-वासं ण मुंचंति ॥ १४८ ॥ ते तादृक्षाः सन्तीति कथमवगम्यत इति चेन्न, आगमस्यातर्कगोचरत्वात् । न हि प्रमाणप्रकाशितार्थावगतिः प्रमाणान्तरप्रकाशमपेक्षते स्वरूपविलोपप्रसङ्गात् । न चैतत्प्रामाण्यमसिद्धं सुनिश्चितासम्भवद्धाधकप्रमाणस्यासिद्धत्वविरोधात् । बादरनिगोदप्रतिष्ठिताश्चार्षान्तरेषु श्रूयन्ते, व तेषामन्तर्भावश्चेत् प्रत्येकशरीरवनस्पतिष्विति ब्रूमः । के ते ? स्नुगार्दकमूलकादयः। त्रसकायानां भेदप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाह नित्य निगोदमें ऐसे अनन्तानन्त जीव हैं जिन्होंने त्रस जीवोंकी पर्याय अभीतक कभी नहीं पाई है, और जो भाव अर्थात् निगोद पर्यायके योग्य कषायके उदयसे उत्पन्न हुए दुर्लेश्यारूप परिणामोंसे अत्यन्त अभिभूत रहते हैं, इसलिये निगोद-स्थानको कभी नहीं छोड़ते ॥ १४८॥ शंका-साधारण जीव उक्त लक्षणवाले होते हैं यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि, आगम तर्कका विषय नहीं है । एक प्रमाणसे प्रकाशित अर्थशान दूसरे प्रमाणके प्रकाशकी अपेक्षा नहीं करता है, अन्यथा प्रमाणके स्वरूपका अभाव प्राप्त हो जायगा । तथा आगमकी प्रमाणता असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, जिसके बाधक प्रमाणोंकी असंभावना अच्छीतरह निश्चित है उसको असिद्ध मानने में विरोध आता है । अर्थात् बाधक प्रमाणोंके अभावमें आगमकी प्रमाणताका निश्चय होता ही है । शंका-बादर निगोदोंसे प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति दूसरे आगों में सुनी जाती है, उसका अन्तर्भाव वनस्पतिके किस भेदमें होगा ? समाधान- प्रत्येकशरीर वनस्पतिमें उसका अन्तर्भाव होगा, ऐसा हम कहते हैं । शंका-जो बादरनिगोदसे प्रतिष्ठित हैं वे कौन हैं ? समाधान-थूहर, अदरख और मूली आदिक वनस्पति बादर निगोदसे प्रतिष्ठित हैं । अब त्रसकायिक जीवोंके भेदोंके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं सिद्धराशेर्वृद्धिदर्शनात् संसारिजीवराशेश्च हानिदर्शनात् कथं सर्वदा सिद्धेभ्योऽनन्त गुणत्वं एकशरीरनिगोदजीवानाम् सर्वजीवराश्यनन्तगुणकालसमयसमूहस्य तद्योग्यानन्तभागे गते सति संसारिजीवराशिक्षयस्य सिद्धराशिबहुत्वस्य च सुघटत्वात् ? इति चेत्तन्न, केवलज्ञानदृष्टया केवलिभिः, श्रुतज्ञानदृष्टया श्रुतकेवलिभिश्च सदा दृष्टस्य भव्यसंसारि. जीवराश्यक्षयस्यातिसूक्ष्मत्वात्तर्कविषयत्वाभावात् । प्रत्यक्षागमबाधितस्य च तर्कस्याप्रमाणत्वात् । जी. प्र. टी. १ गो. जी. १९७. नित्यनिगोदलक्षणमनेन ज्ञातव्यं । xxx एकदेशाभावविशिष्टसकलार्थवाचिमा प्रचुर शब्देन कदाचिदष्टसमयाधिकषण्मासाभ्यन्तरे चतुर्गतिजीवराशितो निर्गतेषु अष्टोत्तरषट्शतजीवेषु मुक्तिं गतेषु तावंतो जीवा नित्गनिगोदभावं त्यक्त्वा चतुर्गतिभवं प्राप्नुवंतीत्ययमर्थः प्रतिपादितो बोद्धव्यम् । जी. प्र. टी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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