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________________ (१६) नहीं । किंतु उनके 'पूर्वपदाशवेदी ' अर्थात् पूर्वोके एकदेशको जाननेवाले, ऐसे विशेषणसे पता चलता है कि ये वे ही हैं । पट्टावलीमें उनके शिष्य धरसेनका उल्लेख न आनेका कारण यह हो सकता है कि धरसेन विद्यानुरागी थे और वे संघसे अलग रहकर शास्त्राभ्यास किया करते थे। अतः उनकी अनुपस्थितिमें संघका नायकत्व माघनन्दिके अन्य शिष्य जिनचन्द्रपर पड़ा हो। उधर धरसेनाचार्यने अपनी विद्याद्वारा शिष्यपरम्परा घुष्पदन्त और भूतबलिद्वारा चलाई । माधनन्दिका उल्लेख । जंबूदीवपण्णत्ति' के कर्ता पद्मनन्दिने भी किया है और उन्हें, राग, द्वेष और मोह से रहित, श्रुतसागरके पारगामी, मति-प्रगल्भ, तप और संयमसे सम्पन्न तथा विख्यात कहा है। इनके शिष्य सकलचंद्र गुरु थे जिन्होंने सिद्धान्तमहोदधिमें अपने पापरूपी मैल धो डाले थे। उनके शिष्य श्रीनन्दि गुरु हुए जिनके निमित्त जंयूदविपण्णत्ति लिखी गई । यथा गय-राय-दोस-मोहो सुद-सायर-पारओ मइ-पगब्भो । तव-संजम-संपण्णो विक्खाओ माघनंदि-गुरू ॥ १५४ ॥ तस्सेव य वरसिस्सो सिद्धत-महोदहिम्मि धुय-कलुसो । णय-णियम-तील कलिदो गुणउत्तो सयलचंद-गुरू ।। १५५ ॥ तस्सेव य वर-सिस्सो णिम्मल-वर-णाण-चरण-संजुत्तो । सम्मइंसण-सुद्धो सिरिणंदि-गुरु त्ति विक्खाओ ॥ १५६ ॥ तस्स णिमित्तं लिहियं जंबूदीवस्स तह य पण्णत्ती । जो पढइ सुणइ एदं सो गच्छइ उत्तम ठाणं ॥ १५७ ।। (जैन साहित्य संशोधक, खं, १. जंबूदीवपण्णत्ति. लेखक पं. नाथूरामजी प्रेमी) जंबूदीवपण्णत्तिका रचनाकाल निश्चित नहीं है। किन्तु यहां माघनन्दिको श्रुतसागर पारगामी कहा है जिससे जान पडता है कि संभवतः यहां हमारे माघनन्दिसे ही तात्पर्य है । माधनन्दि सिद्धान्तवेदीके संबन्धका एक कथानक भी प्रचलित है । कहा जाता है कि माघनन्दि मुनि एकबार चर्याके लिये नगरमें गये थे। वहां एक कुम्हारकी कन्याने इनसे प्रेम प्रगट किया और वे उसीके साथ रहने लगे । कालान्तरमें एकबार संघमें किसी सैद्धान्तिक विषयपर मतभेद उपस्थित हुआ और जब किसीसे उसका समाधान नहीं हो सका तब संघनायकने आज्ञा दी कि इसका समाधान माघनन्दिके पास जाकर किया जाय । अतः साधु माघनन्दिके पास पहुंचे और उनसे ज्ञानकी व्यवस्था मांगी । माघनन्दिने पूछा 'क्या संघ मुझे अब भी यह सत्कार देता है ? मुनियोंने उत्तर दिया आपके श्रुतज्ञानका सदैव आदर होगा।' यह सुनकर माघनन्दीको पुनः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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