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________________ २६६ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [१, १, ३९. दितवृत्तयस्त्रसाः । त्रसेरुद्वेजनक्रियस्य त्रस्यन्तीति त्रसा इति चेन्न, गर्भाण्डजमूच्छितसुषुप्तेषु तदभावादत्र सच्चप्रसङ्गात् । ततो न चलनाचलनापेक्षं त्रसस्थावरत्वम् । आत्मप्रवृत्त्युपचितपुद्गलपिण्डः कायः इत्यनेनेदं व्याख्यानं विरुद्धयत इति चेन्न, जीवविपाकिपृथिवीकाथिकादिकर्मोदय सहकार्यैदारिकशरीरोदय जनितशरीरस्यापि उपचारतस्तद्व्यपदेशार्हत्वाविरोधात् । सस्थावरकायिकनामकर्मबन्धातीताः अकायिकाः सिद्धाः । उक्तं च जह कं चणमग्गि-गयं मुंचइ किड्डेण कालियाए य । तह काय-बंध-मुक्का अकाइया झाण- जोएण ॥ १४४ ॥ पुढवि-काइयादीणं भेद-पदुष्यायणमुत्तर-सुत्तं भणइ व्युत्पत्तिकी तरह प्रधानतासे अर्थका ग्रहण नहीं है । नामकर्मके उदयसे जिन्होंने सपर्यायको प्राप्त कर लिया है उन्हें त्रस कहते हैं । शंका- -' त्रसी उद्वेगे' इस धातुसे त्रस शब्दकी सिद्धि हुई है, जिसका यह अर्थ होता है कि जो उद्विग्न अर्थात् भयभीत होकर भागते हैं वे त्रस हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, गर्भ में स्थित, अण्डेमें बन्द, मूर्छित और सोते हुए जीवों में उक्त लक्षण घटित नहीं होनेसे उन्हें अत्रसत्वका प्रसंग आजायगा । इसलिये चलने और ठहरनेकी अपेक्षा त्रस और स्थावरपना नहीं समझना चाहिये । शंका - आत्म-प्रवृत्ति अर्थात् योगसे संचित हुए पुद्गलपिण्डको काय कहते हैं, इस व्याख्यानसे पूर्वोक्त व्याख्यान विरोधको प्राप्त होता है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, जिसमें जीवविपाकी त्रस नामकर्म और पृथिवीकायिक आदि नामकर्मके उदयकी सहकारिता है ऐसे औदारिक-शरीर नामकर्मके उदयसे उत्पन्न हुए शरीरको उपचारसे कायपना बन जाता है, इसमें कोई विरोध नहीं आता है । त्रस और स्थावर-कायिक नामकर्म के बन्धसे अतीत सिद्धोंको अकायिक कहते हैं । कहा भी है जिसप्रकार अग्निको प्राप्त हुआ सोना कीट और कालिमारूप बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकारके मलसे रहित हो जाता है, उसीप्रकार ध्यानके द्वारा यह जीव काय और कर्मरूप बन्धसे मुक्त होकर कायरहित हो जाता है ॥ १४४ ॥ अब पृथिवीकायिकादि जीवोंके भेदोंके प्रतिपादन करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं १ त. रा. वा. २. १२.२. २ प्रतिषु ' किट्टण ' इति पाठः । ३ गो. जी. २०३. किन बहिर्मलेन कालिकया च वैवर्ण्यरूपांतरंगमलेन । जी. प्र. दी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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