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________________ १, १, ३९.] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे कायमग्गणापरूवर्ण [ २६५ अनुवदनमनुवादः । कायानामनुवादः कायानुवादः तेन कायानुवादेन । पृथिव्येष कायः पृथिवीकायः स एषामस्तीति पृथिवीकायिकाः । न कार्मणशरीरमात्रस्थितजीवानां पृथिवीकायत्वाभावः भाविनि भूतवदुपचारतस्तेषामपि तद्व्यपदेशोपपत्तेः । अथवा पृथिवीकायिकनामकर्मोदयवशीकृताः पृथिवीकायिकाः । एवमप्कायिकादीनामपि वाच्यम् । पृथिव्यादीनि कर्माण्यसिद्धानीति चेन्न, पृथिवीकायिकादिकार्यान्यथानुपपत्तितस्तदस्तित्वसिद्धेः। एते पश्चापि स्थावराः स्थावरनामकर्मोदयजनितविशेषत्वात् । स्थानशीलाः स्थावरा इति चेन्न, वायुतेजोऽम्भसा देशान्तरप्राप्तिदर्शनादस्थावरत्वप्रसङ्गात् । स्थानशीला: स्थावरा इति व्युत्पत्तिमात्रमेव, नार्थःप्राधान्येनाश्रीयते गोशब्दस्येव । सनामकर्मोदयापा सूत्रके अनुकूल कथन करनेको अनुवाद कहते हैं । कायके अनुवादको कायानुवाद कहते हैं, उसकी अपेक्षा पृथिवीकायिक आदि जीव होते हैं। पृथिवीरूप शरीरको पृथिवीकाय कहते हैं, वह जिनके पाया जाता है उन जीवोंको पृथिवीकायिक कहते हैं। पृथिवीकायिकका इसप्रकार लक्षण करने पर कार्मण काययोगमें स्थित जीवोंके पृथिवीकायपना नहीं हो सकता है, यह बात नहीं है, क्योंकि, जिसप्रकार जो कार्य अभी नहीं हुआ है, उसमें यह हो चुका इसप्रकार उपचार किया जाता है, उसीप्रकार कार्मण काययोगमें स्थित पृथिवीकायिक जीवोंके भी पृथिवीकायिक यह संशा बन जाती है । अथवा, जो जीव पृथिवीकायिक नामकर्मके उदयके वशवर्ती हैं उन्हें पृथिवीकायिक कहते हैं। इसीप्रकार जलकायिक आदि शब्दोंकी भी निरुक्ति कर लेना चाहिये। शंका-पृथिवी आदि कर्म तो असिद्ध हैं, अर्थात् उनका सद्भाव किसी प्रमाणसे सिद्ध नहीं होता है? समाधान-नहीं, क्योंकि, पृथिवीकायिक आदि कार्योंका होना अन्यथा बन नहीं सकता, इसलिये पृथिवी आदि नामकौके अस्तित्वकी सिद्धि हो जाती है। ___ स्थावर नामकर्मके उदयसे उत्पन्न हुई विशेषताके कारण ये पांचों ही स्थावर कहलाते हैं। शंका-स्थानशील अर्थात् ठहरना ही जिनका स्वभाव हो उन्हें स्थावर कहते हैं, ऐसी व्याख्याके अनुसार स्थावरोंका स्वरूप क्यों नहीं कहा ? .. समाधान-नहीं, क्योंकि, वैसा लक्षण मानने पर, वायुकायिक, अग्निकायिक और जलकायिक जीवोंकी एक देशसे दूसरे देशमें गात देखी जानेसे उन्हें अस्थावरत्वका प्रसंग प्राप्त हो जायगा। स्थानशील स्थावर होते हैं, यह निरुक्ति व्युत्पत्तिमात्र ही है, इसमें गो शब्दकी १ त. रा. वा. २. १२. ३. तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः । स. त. सू. २. १४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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