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________________ १, १, ३१.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे इंदियमगणापरूवर्ण [ २५५ नाहारपर्याप्तिर्निष्पद्यत इति यावत् । तं खलभागं तिलखलोपममस्थ्यादिस्थिरावयवैस्तिलतैलसमानं रसभागं रसरुधिरवसाशुक्रादिद्रवावयवैरौदारिकादिशरीरत्रयपरिणामशक्त्युपेतानां स्कन्धानामवाप्तिः शरीरपर्याप्तिः। साहारपर्याप्तेः पश्चादन्तर्मुहूर्तेन निष्पद्यते । योग्यदेशस्थितरूपादिविशिष्टार्थग्रहणशक्त्युत्पत्तेनिमित्तपुद्गलप्रचयावाप्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः । सापि ततः पश्चादन्तर्मुहूर्तादुपजायते । न चेन्द्रियनिष्पत्तौ सत्यामपि तस्मिन् क्षणे वाह्यार्थविषयविज्ञानमुत्पद्यते तदा तदुपकरणाभावात् । उच्छासनिस्सरणशक्तेर्निष्पत्तिनिमित्तपुद्गलप्रचयावाप्तिरानापानपर्याप्तिः । एषापि तस्मादन्तर्मुहूर्तकाले समतीते भवेत् । भाषावर्गणायाः स्कन्धाच्चतुर्विधभाषाकारेण परिणमनशक्तेनिमित्तनोकर्मपुद्गलप्रचयावाप्तिर्भाषापर्याप्तिः । एषापि पश्चादन्तर्मुहूर्तादुपजायते । मनोवर्गणास्कन्धनिष्पन्नपुद्गलप्रचयः अनुभूतार्थस्मरणशक्तिनिमित्तः मनःपर्याप्तिः द्रव्यमनोऽवष्टम्भेनानुभूतार्थस्मरणशक्तेरुत्पत्तिमनःपर्याप्तिा । एतासां प्रारम्भोऽक्रमेण जन्मसमयादारभ्य तासां सत्त्वाभ्युपगमात् । समान उस खलभागको हड्डी आदि कठिन अवयवरूपसे और तिलके तैलके समान रसभागको रस, रुधिर, वसा, वीर्य आदि द्रव अवयवरूपसे परिणमन करनेवाले औदारिक आदि तीन शरीरोंकी शक्तिसे युक्त पुदलस्कन्धोंकी प्राप्तिको शरीर पर्याप्ति कहते हैं। वह शरीर पर्याप्ति आहार पर्याप्तिके पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्तमें पूर्ण होती है । योग्य देशमें स्थित रूपादिसे युक्त पदार्थों के ग्रहण करनेरूप शक्तिकी उत्पत्तिके निमित्तभूत पुद्गलप्रचयकी प्राप्तिको इन्द्रियपर्याप्ति कहते हैं । यह इन्द्रिय पर्याप्ति भी शरीर पर्याप्तिके पश्चात् एक अन्तर्मुहूर्तमें पूर्ण होती है। परंतु इन्द्रिय पर्याप्तिके पूर्ण हो जाने पर भी उसी समय बाह्य पदार्थसंबन्धी ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है, क्योंकि, उस समय उसके उपकरणरूप द्रव्योन्द्रिय नहीं पाई जाती है । उच्छास और निःश्वासरूप शक्तिको पूर्णताके निमित्तभूत पुद्गलप्रचयकी प्राप्तिको आनापान पर्याप्ति कहते हैं। यह पर्याप्ति भी इन्द्रिय पर्याप्तिके अनन्तर एक अन्तर्मुहूर्त काल व्यतीत होने पर पूर्ण होगी। भाषावर्गणाके स्कन्धोंके निमित्तसे चार प्रकारको भाषारूपसे परिणमन करनेकी शक्तिके निमित्तभूत नोकर्म पुद्गलप्रचयकी प्राप्तिको भाषा पर्याप्ति कहते हैं । यह पर्याप्ति भी आनापान पर्याप्तिके पश्चात् एक अन्तर्मुहूतमें पूर्ण होती है। अनुभूत अर्थके स्मरणरूप शक्तिके निमित्तभूत मनोवर्गणाके स्कन्धोंसे निष्पन्न पुद्गलप्रचयको मनःपर्याप्ति कहते हैं । अथवा, द्रव्यमनके आलम्बनसे अनुभूत अर्थके स्मरणरूप शक्तिकी उत्पत्तिको मनःपर्याप्ति कहते हैं । इन छहों पर्याप्तियोंका प्रारम्भ युगपत् १ आहारपर्याप्तिश्च प्रथमसमय एव निष्पद्यते xxx आहारपर्याप्त्या अपर्याप्तो विग्रहगतावेवोत्पद्यते नोपपातक्षेत्रमागतोऽपि, उपपातक्षेत्रमागतस्य प्रथमसमय एवाहारकत्वात् । तत एकसामयिकी आहारपर्याप्तिनिर्वृत्तिः ! नं. सू. १७ टी. २ गो. जी. गा. ११९. नं. सू. १७. अनयोष्टीका विशेषानुसन्धानाय दृष्टव्या । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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