SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 373
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, १, ३४. कीदयवन्तः पर्याप्ताः। तदुदयवतामनिष्पन्नशरीराणां कथं पर्याप्तव्यपदेशो घटत इति चेन्न, नियमेन शरीरनिष्पादकानां भाविनि भूतबदुपचारतस्तदविरोधात् पर्याप्तनामकर्मोदय सहचाराद्वा । यदि पर्याप्तशब्दो निष्पातिवाचकः, कैस्ते निष्पन्नाः इति चेत्पर्याप्तिभिः । कियत्यत्ताः इति चेत्सामान्येन षड् भवन्ति, आहारपर्याप्तिः शरीरपर्याप्तिः इन्द्रियपर्याप्तिः आनापानपर्याप्तिः भाषापर्याप्तिः मनःपर्याप्तिरिति । तत्राहारपर्याप्तेरर्थ उच्यते । शरीरनामकर्मोदयात् पुद्गलविपाकिन आहारवर्गणागतपुद्गलस्कन्धाः समवेतानन्तपरमाणुनिष्पादिता आत्मावष्टब्धक्षेत्रस्थाः कर्मस्कन्धसम्वन्धतो मूर्तीभूतमात्मानं समवेतत्वेन समाश्रयन्ति । तेषामुपगतानां पुद्गलस्कन्धानां खलरसपर्यायैः परिणमनशक्तर्निमित्तानामाप्तिराहारपर्याप्तिः । सा च नान्तर्मुहूर्तमन्तरेण समयेनैकेनैवोपआयते आत्मनोऽक्रमण तथाविधपरिणामाभावाच्छरीरोपादानप्रथमसमयादारभ्यान्तमुहूर्ते. उनमेंसे जो पर्याप्त नामकर्मके उदयसे युक्त हैं उन्हें पर्याप्त कहते हैं। शंका- पर्याप्त नामकर्मके उदयसे युक्त होते हुए भी जब तक शरीर निष्पन्न नहीं हुआ है तब तक उन्हें पर्याप्त कैसे कह सकते हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, नियमसे शरीरको उत्पन्न करनेवाले जीवोंके, होनेवाले कार्य में यह कार्य हो गया, इसप्रकार उपचार कर लेनेसे पर्याप्त संज्ञा करनेमें कोई विरोध नहीं आता है । अथवा, पर्याप्त नामकर्मके उदयसे युक्त होनेके कारण पर्याप्त संज्ञा दी गई है। शंका-यदि पर्याप्त शब्द निष्पत्ति-वाचक है तो यह बतलाइये कि ये पर्याप्तजीव किनसे निष्पन्न होते हैं। समाधान-पर्याप्तियोंसे निष्पन्न होते हैं। शंका-वे पर्याप्तियां कितनी है ? समाधान-सामान्यकी अपेक्षा छह हैं, आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, आनापानपर्याप्ति, भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति । इनमेंसे, पहले आहारपर्याप्तिका अर्थ कहते हैं। शरीर नामकर्मके उदयसे जो परस्पर अनन्त परमाणुओंके संबन्धसे उत्पन्न हुए हैं, और जो आत्मासे व्याप्त आकाश क्षेत्रमें स्थित हैं ऐसे पुद्गलविपाकी आहारवर्गणासंबन्धी पुद्गलस्कन्ध, कर्मस्कन्धके संबन्धसे कथंचित् मूर्तपनेको प्राप्त हुए आत्माके साथ समवायरूपसे संबन्धको प्राप्त होते हैं, उन स्खल-भाग और रस भागके भेदसे परिणमन करनेरूप शक्तिसे बने हुए आगत पुद्गलस्कंधोंकी प्राप्तिको आहारपर्याप्ति कहते हैं। वह आहारपर्याप्ति अन्तर्मुहूर्तके विना केवल एक समयमें उत्पन्न नहीं हो जाती है, क्योंकि, आत्माका एकसाथ आहारपप्तिरूपसे परिणमन नहीं हो सकता है। इसलिये शरीरको ग्रहण करनेके प्रथम समयसे लेकर एक अन्तर्मुहूर्तमें आहारपर्याप्ति निष्पन्न होती है। तिलकी खलीके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy