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________________ १, १, ३३.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे इंदियमग्गणापरूवणं रिति चेन्न, कारणधर्मस्य कार्यानुवृत्तेः। कार्य हि लोके कारणमनुवर्तमानं दृष्टं, यथा घटाकारपरिणतं विज्ञानं घट इति । तथेन्द्रियनिवृत्त उपयोगोऽपि इन्द्रियमित्यपदिश्यते । इन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रेण सृष्टमिति वा य इन्द्रियशब्दार्थः स क्षयोपशमे प्राधान्येन विद्यत इति तस्येन्द्रियव्यपदेशो न्याय्य इति । तेन इन्द्रियेण अनुवादः इन्द्रियानुवादः, तेन सन्ति एकेन्द्रियाः। एकमिन्द्रियं येषां त एकेन्द्रियाः । किं तदेकमिन्द्रियम् ? स्पर्शनम् । वीयान्तरायस्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भात्स्पृशत्यनेनेति स्पर्शनं करणकारके । इन्द्रियस्य स्वातन्त्र्यविवक्षायां कर्तृत्वं च भवति । यथा पूर्वोक्तहेतुसन्निधाने सति स्पृशतीति स्पर्शनम् । कोऽस्य विषयः ? स्पर्शः । कोऽस्यार्थः ? उच्यते, यदा वस्तु इसप्रकार लब्धि और उपयोग ये दोनों भावेन्द्रियां हैं। शंका-उपयोग इन्द्रियोंका फल है, क्योंकि, उसकी उत्पत्ति इन्द्रियोंसे होती है, इसलिये उपयोगको इन्द्रिय संज्ञा देना उचित नहीं है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, कारणमें रहनेवाले धर्मकी कार्यमें अनुवृत्ति होती है । अर्थात् कार्य लोकमें कारणका अनुकरण करता हुआ देखा जाता है। जैसे, घटके आकारसे परिणत हुए ज्ञानको घट कहा जाता है, उसीप्रकार इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए उपयोगको भी इन्द्रिय संज्ञा दी गई है। इन्द्र (आत्मा) के लिंगको इन्द्रिय कहते हैं । या जो इन्द्र अर्थात् नामकर्मसे रची गई है उसे इन्द्रिय कहते हैं । इसप्रकार जो इन्द्रिय शब्दका अर्थ किया जाता है, वह क्षयोपशममें प्रधानतासे पाया जाता है, इसलिये उपयोगको इन्द्रिय संज्ञा देना उचित है। उक्त प्रकारकी इन्द्रियकी अपेक्षा जो अनुवाद, अर्थात् आगमानुकूल कथन किया जाता है उसे इन्द्रियानुवाद कहते हैं। उसकी अपेक्षा एकेन्द्रिय जीव हैं। जिनके एक ही इन्द्रिय पाई जाती है उन्हें एकेन्द्रिय जीव कहते हैं। शंका-वह एक इन्द्रिय कौनसी है ? समाधान-वह एक इन्द्रिय स्पर्शन समझना चाहिये। वीर्यान्तराय और स्पर्शनेन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमसे तथा आंगोपांग नामकर्मके उदयरूप आलम्बनसे जिसके द्वारा आत्मा पदार्थोंको स्पर्श करता है, अर्थात् पदार्थगत स्पर्शधर्मकी मुख्यतासे जानता है, उसे स्पर्शन-इन्द्रिय कहते हैं। यह लक्षण करण-कारककी अपेक्षामें (परतन्त्र विवक्षामें ) बनता है। और इन्द्रियकी स्वातन्त्र्यविवक्षामें कर्तृ-साधन भी होता है। जैसे, पूर्वोक्त साधनोंके रहने पर जो स्पर्श करती है उसे स्पर्शन-इन्द्रिय कहते हैं। शंका-स्पर्शन-इन्द्रियका विषय क्या है ? १ सन्दर्भीयं त. रा. वा. २.१८. वा. १-३. व्याख्यया समानः । २ स. सि. २. १९. त. रा. वा. २. १९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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