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१, १, ३३.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे इंदियमग्गणापरूवणं [ २३५ अतिमुक्तकपुष्पसंस्थाना अङ्गलस्यासंख्येयभागप्रमिता घ्राणनिवृत्तिः । अर्धचन्द्राकारा क्षुरप्राकारा वाङ्गलस्य संख्येयभागप्रमिता रसननिवृत्तिः । स्पर्शनेन्द्रियनिर्वृत्तिरनियतसंस्थानो। सा जघन्येन अङ्गुलस्यासंख्येयभागप्रमिता सूक्ष्मशरीरेषु, उत्कर्षेण संख्येयधनाङ्गलप्रमिता महामत्स्यादित्रसजीवेषु' । सर्वतः स्तोकाश्चक्षुषः प्रदेशाः, श्रोत्रेन्द्रियप्रदेशाः संख्येयगुणाः, घ्राणेन्द्रियप्रदेशा विशेषाधिकाः, जिह्वायामसंख्येयगुणाः, स्पर्शने संख्येयगुणाः । उक्तं च
घनांगुलके असंख्यातवें भाग-प्रमाण श्रोत्र-इन्द्रियकी बाह्य-निवृत्ति होती है। कदम्बके फूलके समान आकारवाली और धनांगुलके असंख्यातवें भाग-प्रमाण घ्राण-इन्द्रियकी बाह्य-निर्वृत्ति होती है। अर्ध-चन्द्र अथवा खुरपाके समान आकारवाली और घनांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण रसना इन्द्रियकी बाह्य-निर्वृत्ति होती है। स्पर्शन-इन्द्रियकी बाह्य-निर्वृत्ति अनियत आकारवाली होती है । वह जघन्य-प्रमाणकी अपेक्षा घनांगुलके असंख्यातवें भाग-प्रमाण सूक्ष्मानगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके (तीन मोड़ेसे उत्पन्न होनेके तृतीय समयवर्ती) शरीरमें पाई जाती है, और उत्कृष्ट प्रमाणकी अपेक्षा संख्यात घनांगुल-प्रमाण महामत्स्य आदि त्रसजीवोंके शरीरमें पाई जाती है। चक्षु-इन्द्रियके अवगाहनारूप प्रदेश सबसे कम हैं। उनसे संख्यातगुणे श्रोत्र इन्द्रियके प्रदेश हैं। उनसे अधिक घ्राण-इन्द्रियके प्रदेश हैं। उनसे असंख्यातगुणे जिव्हा-इन्द्रियमें प्रदेश हैं। और उनसे संख्यातगुणे स्पर्शन-इन्द्रियमें प्रदेश हैं।
विशेषार्थ- ऊपर इन्द्रियोंकी अवगाहना बतला कर जो चक्षु आदि इन्द्रियोंके प्रदेशोंका प्रमाण बतलाया गया है, वह इन्द्रियोंकी अवगाहनाके तारतम्यका ही बोधक जानना चाहिये। अर्थात् चक्षु इन्द्रिय अपनी अवगाहनासे जितने आकाश-प्रदेशोंको रोकती है, उससे संख्यातगुणे आकाश-प्रदेशोंको व्याप्त कर श्रोत्रेन्द्रिय रहती है। उससे विशेष अधिक आकाशप्रदेशोंको घ्राण-इन्द्रिय व्याप्त करती है। उससे असंख्यातगुणे आकाशप्रदेशोंको व्याप्त कर जिह्वा-इन्द्रिय रहती है और उससे संख्यातगुणे आकाश-प्रदेशोंको व्याप्त कर स्पर्शन इन्द्रिय रहती है। गोमट्टसार जीवकाण्डकी 'अंगुलअसंखभाग' इत्यादि गाथासे इसी कथनकी पुष्टि होती है। अषगाहनाके समान इन्द्रियाकार आत्मप्रदेशोंकी रचनामें भी यह क्रम लागू हो सकता है। परंतु राजवार्तिकमें ‘स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणि' इस सूत्रकी व्याख्या करते हुए रसनाइन्द्रियसे स्पर्शन-इन्द्रियके प्रदेश अनन्तगुणे अधिक बतलाये हैं। यह कथन इन्द्रियोंकी अवगाहना और इन्द्रियाकार आत्मप्रदेशोंकी रचनामें किसी भी प्रकारसे घटित नहीं होता है, क्योंकि, एक जीवके अवगाहनरूप क्षेत्र और आत्मप्रदेश अनन्तप्रमाण या अनन्तगुणे संभव ही नहीं हो सकते । संभव है वहां पर बाह्यनिवृत्तिके प्रदेशोंकी अपेक्षासे उक्त कथन किया गया हो। कहा भी है
१ सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादरस तदियसमयम्हि अंगुल असंखभाग जहण्णमुक्कस्सयं मच्छे॥गी.जी. १७३. २ स्पर्शनेऽनंतगुणाः ' इति पाठः त. रा. बा. २. १९. ५.
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