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________________ २३४] छक्खंडागमे जीवाणं [१, १, ३३. चेन्न, तक्रमणावस्थायां तत्समवायाभावात् । शरीरेण समवायाभावे मरणमाढौकत इति चेन्न, आयुषः क्षयस्य मरणहेतुत्वात् । पुनः कथं संघटत इति चेन्नानाभेदोपसंहृतजीवप्रदेशानां पुनः संघटनोपलम्भात्, द्वयोर्मूर्तयोः संघटने विरोधाभावाच्च, तत्संघटनहेतुकर्मोदयस्य कार्यवैचित्र्यादवगतवैचित्र्यस्य सत्त्वाच्च । द्रव्येन्द्रियप्रमितजीवप्रदेशानां न भ्रमणमिति किनेष्यत इति चेन्न, तद्भमणमन्तरेणाशुभ्रमजीवानां भ्रमझम्यादिदर्शनानुपपत्तेः इति । तेष्वात्मप्रदेशेषु इन्द्रियव्यपदेशभाक्षु यः प्रतिनियतसंस्थानो नामकर्मोदयापादितावस्थाविशेषः पुद्गलप्रचयः स बाह्या निवृत्ति:। ममूरिकाकारा अङ्गलस्यासंख्येयभागप्रमिता चक्षुरिन्द्रियस्य बाह्यनिवृत्तिः । यवनालिकाकारा अङ्गुलस्यासंख्येयभागप्रमिता श्रोत्रस्य बाह्या निवृत्तिः । समवायसंबन्धको प्राप्त शरीरका भी जीवप्रदेशोंके समान भ्रमण होना चाहिये ? समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि, जीवप्रदेशोंकी भ्रमणरूप अवस्थामें शरीरका उनसे समवायसंबन्ध नहीं रहता है। शंका-भ्रमणके समय शरीरके साथ जीवप्रदेशोंका समवायसंबन्ध नहीं मानने पर मरण प्राप्त हो जायगा? समाधान नहीं, क्योंकि, आयु-कर्मके क्षयको मरणका कारण माना है। शंका- तो जीवप्रदेशोंका शरीरके साथ फिरसे समवायसंबन्ध कैसे बन जाता है ? समाधान - इसमें भी कोई बाधा नहीं है, क्योंकि, जिन्होंने नाना अवस्थाओंका उपसंहार कर लिया है, ऐसे जीवोंके प्रदेशोंका शरीरके साथ फिरसे समवायसंबन्ध उपलब्ध होता हुआ देखा ही जाता है। तथा, दो मूर्त पदार्थोके संबन्ध होनेमें कोई विरोध भी नहीं आता है । अथवा, जीवप्रदेश और शरीर संघटनके हेतुरूप कर्मोदयके कार्यकी विचित्रतासे यह सब होता है। और जिसके अनेक प्रकारके कार्य अनुभवमें आते हैं ऐसे कर्मका सत्त्व पाया ही जाता है। __ शंका-द्रव्येन्द्रिय-प्रमाण जीवप्रदेशोंका भ्रमण नहीं होता, ऐसा क्यों नहीं मान लेते हो? समाधान- नहीं, क्योंकि, यदि द्रव्यन्द्रिय-प्रमाण जीवप्रदेशोंका भ्रमण नहीं माना जावे, तो अत्यन्त द्रुतगतिसे भ्रमण करते हुए जीवोंको भ्रमण करती हुई पृथिवी आदिका ज्ञान नहीं हो सकता है। इसलिये आत्मप्रदेशोंके भ्रमण करते समय द्रव्येन्द्रिय प्रमाण आत्मप्रदेशोंका भी भ्रमण स्वीकार कर लेना चाहिये । इसतरह इन्द्रिय-व्यपदेशको प्राप्त होनेवाले उन आत्मप्रदेशोंमें, जो प्रतिनियत आकारवाला और नामकर्मके उदयसे अवस्था-विशेषको प्राप्त पुद्गल. प्रचय है उसे बाह्य-निवृत्ति कहते हैं। मसूरके समान आकारवाली और घनांगुलके असंख्यातवेंभाग-प्रमाण चक्षु इन्द्रियकी बाह्य-निवृत्ति होती है। यवकी नालीके सामान आकारवाली और १ पाठोऽयं त. रा. वा. २. १७. वा. ३-४ व्याख्यया समानः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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