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________________ २३०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, ३०. प्रायद्वयं घटते तथाप्रतिभासनात् । न च प्रमाणाननुसार्यभिप्रायः साधुरव्यवस्थापत्तेः । न च जीवाद्वैते द्वैते वा प्रमाणमस्ति कृत्स्नस्यैकत्वाद्देशादेरिव सत्तातोऽप्यन्यतो भेदात् । न प्रमेयस्यापि सत्त्वमपेक्षितप्रमाणव्यापारस्य तस्य प्रमाणाभावे सत्त्वायोगात् । प्रमाणं वस्तुनो न कारकमतो न तद्विनाशाद्वस्तुविनाश इति चेन्न, प्रमाणाभावे वचनाभावतः सकलव्यवहारोच्छित्तिप्रसङ्गात् । अस्तु चेन्न, वस्तुविषयविधिप्रतिषेधयोरप्यभावासञ्जनात् । अस्तु चेन्न, तथानुपलम्भात् । ततो विधिप्रतिषेधात्मकं वस्त्वित्यङ्गीकर्तव्यम्, अन्यथोक्त. दोषानुषङ्गात् । ततः सिद्ध गुणद्वारेण जीवानां सादृश्यं विशेषरूपेणासादृश्यमिति । गुणस्थानमार्गणासु जीवसमासान्वेषणार्थं वा । तिरिक्खा मिस्सा' इत्यादि प्रकृत सूत्रका अवतार हुआ है। उक्त दोनों प्रकारके एकान्तरूप, अभिप्राय घटित नहीं होते हैं, क्योंकि, सर्वथा एकान्तरूपसे वस्तु-स्वरूपकी प्रतीति नहीं होती है। और प्रमाणसे प्रतिकूल अभिप्राय ठीक नहीं माना जा सकता, अन्यथा सब जगह अव्यवस्था प्राप्त हो जावेगी । तथा जीवाद्वैत (जीव और मनुष्यादि पर्यायके सर्वथा अभेद ), या जीव-द्वैत (जीव और मनुष्यादि पर्यायके सर्वथा भेद ) के मानने में कोई प्रमाण नहीं है । यदि जीवाद्वैतवादको प्रमाण मानते हैं तो नरक तिथंच आदि सभी पर्यायोंको एकताकी आपत्ति आजाती है। और यदि जीव-द्वैतवादको प्रमाण मानते हैं तो देशभेद आदिकी तरह वस्तुका सत्ताकी अपेक्षा पर पदार्थसे भी भेद सिद्ध हो जाता है । इसप्रकार द्वैतवाद या अद्वैतवादमें प्रमाण नहीं मिलनेसे प्रमेय का भी सत्त्व सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि, प्रमाणके व्यापारकी अपेक्षा रखनेवाले प्रमेयका प्रमाणके अभावमें सद्भाव नहीं बन सकता है। शंका-प्रमाण वस्तुका कारण ( उत्पादक ) नहीं है, इसलिये प्रमाणके विनाशसे वस्तुका विनाश नहीं माना जा सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, प्रमाणके अभाव होने पर वचनकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती है, और उसके विना संपूर्ण लोकव्यवहारके विनाशका प्रसंग आता है। शंका- यदि लोकव्यवहार विनाशको प्राप्त होता है, तो हो जाओ? समाधान- नहीं, क्योंकि, ऐसा मानने पर वस्तु-विषयक विधि-प्रतिषेधका भी अभाव प्राप्त हो जायगा। शंका-यह भी हो जाओ? समाधान-ऐसा भी नहीं है, क्योंकि, वस्तुका विधि-प्रतिषेधरूप व्यवहार देखा जाता है। इसलिये विधि-प्रतिषेधात्मक वस्तु स्वीकार कर लेना चाहिये। अन्यथा ऊपर कहे हुए संपूर्ण दोष प्राप्त हो जायेंगे। इसलिये यह सिद्ध हुआ कि गुणोंकी मुख्यतासे जीवोंके परस्पर समानता है, और विशेष (पर्याय) की मुख्यतासे परस्पर भिन्नता है। अथवा, गुणस्थानों और मार्गणाओंमें जीवसमासोंके अन्वेषण करनेके लिये यह सूत्र १ स. प्रतीत्वोद्देशा' इति पाठः। २ अ. क. प्रत्योः । वासंजननात् ' इति पाटः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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