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________________ १, १, ३०.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदिमग्गणापरूवणं [ २२९ गत्याः अनया गत्या सह गुणद्वारेण योगोऽस्ति नास्तीति, ततः पुनरिदं निरूपणमनर्थकमिति न, तस्य दुर्मेधसामपि स्पष्टीकरणार्थत्वात् । 'प्रतिपाद्यस्य बुभुत्सितार्थविषयनिर्णयोत्पादनं वक्तृवचसः फलम् ' इति न्यायात् । अथवा न तिरवां मिथ्यात्वादिमनुष्यादिमिथ्यात्वादिभिः समानः तिर्यङ्मनुष्यादिव्यतिरिक्तमिथ्यात्वादेरभावात् । नापि तिर्यगादीनामेकत्वं चतुर्गतेरभावप्रसङ्गात् । न चाभावो मनुष्येभ्यो व्यतिरिक्ततिरश्चामुपलम्भादिति पर्यायनयैकान्तावष्टम्भवलेन केचिद् विप्रतिपन्नाः । न मिथ्यात्वादयः पर्यायाः जीवद्रव्याद्भिन्नाः कोषादसेरिव तेषां तस्मात्पृथगनुपलम्भादस्येमे इति सम्बन्धानुपपत्तेश्च । ततस्तस्मात्तेपामभेदः । तथा च न गतिभेदो नापि गुणभेदः इति द्रव्यनयैकान्तावष्टम्भवलेन केचिद्विप्रतिपन्नास्तदभिप्रायकदर्थनार्थ वास्य सूत्रस्यावतारः । नाभि इतने नहीं' इसप्रकारके निरूपण करनेसे ही यह जाना जाता है कि इस गतिकी इस गतिके साथ गुणस्थानोंकी अपेक्षा समानता है, इसकी इसके साथ नहीं । इसलिये फिरसे इसका कथन करना निष्फल है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, अल्पबुद्धिवाले शिष्यों को भी विषयका स्पष्टीकरण हो जावे, इसलिये इस कथनका यहां पर निरूपण किया है , क्योंकि, शिष्यको जिज्ञासित अर्थ संबन्धी निर्णय उत्पन्न करा देना ही वक्ताके वचनोंका फल है, ऐसा न्याय है। __ अथवा, तिर्यंचों के मिथ्यात्वादि भाव मनुष्यादि तीन गतिसंबन्धी जीवोंके मिथ्यात्वादि भावोंके समान नहीं हैं, क्योंकि, तिर्यंच और मनुष्यादिकको छोड़कर मिथ्यात्वादि भावोंका स्वतन्त्र सद्भाव नहीं पाया जाता है । इसलिये जब कि तिर्यंचादिकोंमें परस्पर भेद है, तो तदाश्रित भावोंमें भी भेद होना संभव है । यदि कहा जाय कि तिर्यंचादिकोंमें परस्पर एकता अर्थात् अभेद है, सो भी कहना नहीं बन सकता है, क्योंकि, तिर्यंचादिकोंमें परस्पर अभेद माननेपर चारों गतियोंके अभा प्रसंग आजायगा । परंतु चारों गतियोंका अभाव माना नहीं जा सकता है, क्योंकि, मनुष्योंसे अतिरिक्त तिर्यंचोंकी उपलब्धि होती है। इसप्रकार पर्यायार्थिकनयको ही एकान्तसे आश्रय करके कितने ही लोग विवादग्रस्त हैं। इसीप्रकार मिथ्यात्वादि पर्यायें जीवद्रव्यसे भिन्न नहीं हैं, क्योंकि, जिसप्रकार तरवार म्यानसे भिन्न उपलब्ध होती है, उसप्रकार मिथ्यात्वादिककी जीवद्रव्यसे पृथक् उपलब्धि नहीं होती है। और यदि भिन्न मान ली जावें तो ये मिथ्यात्वादिक पर्यायें इस जीव-द्रव्यकी हैं, इसप्रकार संबन्ध भी नहीं बनता है । इसलिये इन मिथ्यात्वादिक पर्यायोंका जीव-द्रव्यसे अभेद है। इसप्रकार जब मिथ्यात्वादिक पर्यायोंका जीवसे भेद सिद्ध नहीं होता है, तो गतियोंका भेद भी सिद्ध नहीं हो सकता है और न गुणस्थानोंका भेद ही सिद्ध होता है। इसप्रकार केवल द्रव्यार्थिक नयको ही एकान्तसे आश्रय करके कितने ही लोग विवादमें पड़े हुए हैं। इसलिये इन दोनों एकान्तियोंके अभिप्रायके खण्डन करनेके लिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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