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________________ १, १, २६. ] संत-परूपणाणुयोगद्दार गदिमग्गणापरूवणं [२०७ सासादनस्येव सम्यग्दृष्टेरपि तत्रोत्पत्तिर्मा भूदिति चेन्न, प्रथमपृथिव्युत्पत्तिं प्रति निषेधाभावात् । प्रथमपृथिव्यामिव द्वितीयादिषु पृथिवीषु सम्यग्दृष्टयः किन्नोत्पद्यन्त इति चेन्न, सम्यक्त्वस्य तत्रतन्यापर्याप्ताद्धया सह विरोधात् । नोपरिमगुणानां तत्र सम्भत्रस्तेषां संयमासंयमसंयमपर्यायेण सहात्र विरोधात् । तिर्यग्गतौ गुणस्थानान्वेषणार्थमुत्तरसूत्रमाह तिरिक्खा पंचसु ट्टासु अस्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदा त्तिं ॥ २६ ॥ तिर्यग्ग्रहणं शेषगतिनिराकरणार्थम् । पञ्चसु गुणस्थानेषु सन्तीति वचनं पडादिसंख्याप्रतिषेधफलम् । मिथ्यादृष्ट्यादिगुणानां नामनिर्देशः सामान्यवचनतः नरकगति में पर्याप्त अवस्थामें सम्यग्दर्शनकी भी उत्पत्ति मानना चाहिये ? समाधान- नहीं, क्योंकि, यह बात तो हमें इष्ट ही है, अर्थात् सातों पृथिवियों की पर्याप्त अवस्थामें सम्यग्दृष्टियोंका सद्भाव माना गया है। शंका - जिसप्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि नरकमें उत्पन्न नहीं होते हैं, उसीप्रकार सम्यग्दृष्टियों की मरकर नरकमें उत्पत्ति नहीं होनी चाहिये ? समाधान - सम्यग्दृष्टि मरकर प्रथम पृथिवी में उत्पन्न होते हैं, इसका आगम में निषेध नहीं है 1 शंका - जिसप्रकार प्रथम पृथिवीमें सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होते हैं, उसीप्रकार द्वितीयादि पृथिवियों में सम्यग्दृष्टि जीव क्यों उत्पन्न नहीं होते हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, द्वितीयादि पृथिवियोंकी अपर्याप्त अवस्थाके साथ सम्यग्दर्शनका विरोध है, इसलिये सम्यग्दृष्टि द्वितीयादि पृथिवियों में उत्पन्न नहीं होते हैं। इन चार गुणस्थानोंके अतिरिक्त ऊपरके गुणस्थानोंका नरकमें सद्भाव नहीं है, क्योंकि, संयमासंयम और संयम-पर्यायके साथ नरकगतिमें उत्पत्ति होने का विरोध है । अब तिर्यच गतिमें गुणस्थानोंके अन्वेषण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंमिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत इन पांच गुणस्थानों में तिर्यच होते हैं ॥ २६ ॥ शेष गतियोंके निराकरण करने के लिये ' तिर्यग्' पदका ग्रहण किया है। छह गुणस्थान आदिके निवारण करनेके लिये 'पांच गुणस्थानोंमें होते हैं ' यह पद दिया है । 'तिर्यच १ हेमिप्ढवणं जोइसिवणभवणसव्वइत्थीणं । पुण्णिदरे ण हि सम्मो ॥ गो. जी. १२८. २ तिर्यग्गतौ तान्येव संयतासंयतस्थानाधिकानि सन्ति । स. सि. १८. Jain Education International For Private & Personal Use Only i.. www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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