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________________ २०६] छक्खंडागमै जीवट्ठाणं [१, १, २५. तत्र सत्त्वमिति चेन्न, पर्याप्तनरकगत्या सहापर्याप्तया इव तस्य विरोधाभावात् । किमित्यपर्याप्तया विरोधश्चेत्स्वभावोऽयं, न हि स्वभावाः परपर्यनुयोगार्हाः । तद्यन्यास्वपि गतिष्वपर्याप्तकालेऽस्य सत्त्वं मा भूतेन तस्य विरोधादिति चेन्न, नारकापर्याप्तकालेनेव शेषापर्याप्तपर्यायैः सह विरोधासिद्धेः । सम्यग्मिथ्यात्वगुणस्य पुनः सर्वदा सर्वत्रापर्याप्ताद्धाभिर्विरोधस्तत्र तस्य सचप्रतिपादकार्षाभावात् । किमित्यागमे तत्र तस्य सचं नोक्तमिति चेन, आगमस्यातर्कगोचरत्वात् । कथं पुनस्तयोस्तत्र सत्वमिति चेन्न, परिणामप्रत्ययेन तदुत्पत्तिसिद्धेः । तर्हि सम्यग्दृष्टयोऽपि तथैव सन्तीति चेन्न, इष्टत्वात् । समाधान-नहीं, क्योंकि, जिसप्रकार नरकगतिमें अपर्याप्त अवस्थाके साथ सासादन गुणस्थानका विरोध है, उसप्रकार पर्याप्त-अवस्था सहित नरकगतिके साथ सासादन गुणस्थानका विरोध नहीं है । अर्थात् नारकियोंके पर्याप्त अवस्थामें दूसरा गुणस्थान उत्पन्न हो सकता है । यदि कहो कि नरकगतिमें अपर्याप्त अवस्थाके साथ दूसरे गुणस्थानका विरोध क्यों है ? तो उसका यह उत्तर है, कि यह नारकियोंका स्वभाव है, और स्वभाव दुसरेके प्रश्नके योग्य नहीं होते हैं। शंका-यदि ऐसा है, तो अन्य गतियोंके अपर्याप्त कालमें भी सासादन गुणस्थानका सद्भाव मत होओ, क्योंकि, अपर्याप्त कालके साथ सासादन गुणस्थानका विरोध है ? समाधान-यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि, जिसतरह नारकियों के अपर्याप्त कालके साथ सासादन गुणस्थामका विरोध है, उसतरह शेष गतियोंके अपर्याप्त कालके साथ सासादन गुणस्थानका विरोध नहीं है। केवल सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानका तो सदा ही सभी गतियोंके अपर्याप्त कालके साथ विरोध है, क्योंकि, अपर्याप्त कालमें सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानका अस्तित्व बत्तानेवाले आगमका अभाव है। शंका- आगममें अपर्याप्त कालमें मिश्र गुणस्थानका सत्व क्यों नहीं बताया ? समाधान- नहीं, क्योंकि, आगम तर्कका विषय नहीं है। शंका-तो फिर सासादन भौर मिश्र इन दोनों गुणस्थानोंका नरकगतिमें सत्त्व कैसे संभव है? समाधान नहीं, क्योंकि, परिणामों के निमित्तसे नरकगतिकी पर्याप्त अवस्थामें उनकी उत्पत्ति बन जाती है। शंका-तो फिर सम्यग्दृष्टि भी उसीप्रकार होते हैं, ऐसा मानना चाहिये ? अर्थात् १[णेरैइया] सासणसम्माइटिसम्मामिछाइटिहाणे णियमा पज्जत्ता। जी. से. सू. ८.. २तिरिक्खाxxमणुस्सा xx देवा मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइति असंजदसम्माइट्टिटाणे सिया पन्जना सिया अपज्जता जी. सं. सू. ८४, ८९, ९४. ३ मरणं मरणतसमुग्घादो वि य ण मिस्सम्मि | गो. जी. २४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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