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________________ २०१] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, २५: उक्तं च जाइ-जरा-मरण-भया संजोय-वियोय-दुक्ख-सण्णाओं। रोगादिया य जिस्से ण संति सा होइ सिद्धगई ।। १३२ ॥ सर्वत्रास्तीत्यभिसम्बन्धः कर्तव्यः । प्रतिज्ञावाक्यत्वाद्धेतुप्रयोगः कर्तव्यः, प्रतिज्ञामात्रतः साध्यसिद्धयनुपपत्तेरिति चेन्नेदं प्रतिज्ञावाक्यं प्रमाणत्वात्, न हि प्रमाणं प्रमाणान्तरमपेक्षतेऽनवस्थापत्तेः। नास्य प्रामाण्यमसिद्धमुक्तोत्तरत्वात् । साम्प्रतं मार्गणैकदेशगतेरस्तित्वमभिधाय तत्र जीवसमासान्वेषणाय सूत्रमाह - णेरइया चउ-टाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइहि ति ॥ २५ ॥ फिर भी टीकाकारने सिद्धिगति पाठको लेकर निरुक्ति की है। ) कहा भी है जिसमें जन्म, जरा, मरण, भय, संयोग, वियोग, दुख, आहारादि संज्ञाएं और रोगादिक नहीं पाये जाते हैं उसे सिद्धगति कहते हैं ॥ १३२॥ सूत्रमें आये हुए अस्ति पदका प्रत्येक गतिके साथ संबन्ध कर लेना चाहिये। शंका-'नरकगति है, तिर्यंचगति है' इत्यादि प्रतिज्ञा वाक्य होनेसे इनके अस्तित्वकी सिद्धिके लिये हेतुका प्रयोग करना चाहिये, क्योंकि, केवल प्रतिज्ञा-वाक्यसे साध्यकी सिद्धि नहीं हो सकती है? समाधान-नहीं, क्योंकि, 'नरकगति है' इत्यादि वचन प्रतिशावाक्य न होकर प्रमाणवाक्य ( आगमप्रमाण ) हैं। जो स्वयं प्रमाणस्वरूप होते हैं वे दूसरे प्रमाणकी अपेक्षा नहीं करते हैं। यदि स्वयं प्रमाण होते हुए भी दूसरे प्रमाणों की अपेक्षा की जावे तो अनवस्थादोष आ जाता है। और इन बचनोंकी स्वयं प्रमाणता भी असिद्ध नहीं है, क्योंकि, इस विषयमें पहले ही उत्तर दिया जा चुका है कि यह उपदेश सर्वक्षके मुख-कमलसे प्रगट होकर आचार्यपरंपरासे चला आ रहा है. इसलिये प्रमाण दी है। मार्गणाके एकदेशरूप गतिका सद्भाव बताकर अब उसमें जीवसमासोंके अन्वेषणके लिये सूत्र कहते हैं मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानोंमें नारकी होते हैं ॥ २५ ॥ १ कर्मवशाजीवस्य भवे भवे स्वशरीरपर्यायोत्पत्तिर्जातिः। जातस्य तथाविधशरीरपर्यायस्य वयोहान्या विश्शरणं जरा। स्वायु:क्षयात्तथाविधशरीरपर्यायप्राणत्यागो मरणं | अनर्थाशंकया अपकारकेभ्यः पलायनेच्छा भयं । क्लेशकारणानिष्टद्रव्यसंगमः संयोगः । सुखकारणेष्टद्रव्यापायो वियोगः। एतेभ्यः समुत्पन्नानि आत्मनो निग्रहपाणि दुःखानि । शेषास्तिस्रः आहारादिवोछारूपाः संज्ञाः। गो. जी., म.प्र., टी. १५२. २ गो. जी. १५२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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