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________________ १, १, २४.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदिमग्गणापरूवणं [२०३ उत्कटा इति वा मनुष्याः, तेषां गतिः मनुष्यगतिः । उक्तं च ___ मण्णंति जदो णिच्चं मणेण णिउणा मणुक्कडा जम्हा । मणु-उब्भवा य सब्वे तम्हा ते माणुसा भणिया' ।। १३० ॥ अणिमाद्यष्टगुणावष्टम्भवलेन दीव्यन्ति क्रीडन्तीति देवाः । देवानां गतिर्देवगतिः। अथवा देवगतिनामकर्मोदयोऽणिमादिदेवाभिधानप्रत्ययव्यवहारनिबन्धनपायोत्पादको देवगतिः । देवगतिनामकर्मोदयजनितपर्यायो वा देवगतिः कार्ये कारणोपचारात् । उक्तं च - दिव्यंति जदो णिचं गुणेहि अट्ठहि य दव-भावेहि । भासंत-दिव्य-काया तम्हा ते वणिया देवा ॥ १३१ ॥ सिद्धिः स्वरूपोपलब्धिः सकलगुणैः स्वरूपनिष्ठा सा एव गतिः सिद्धिगतिः । उत्कट अर्थात् सूक्ष्म-विचार आदि सातिशय उपयोगसे युक्त हैं उन्हें मनुष्य कहते हैं, और उनकी गतिको मनुष्यगति कहते हैं। कहा भी है जिसकारण जो सदा हेय-उपादेय आदिका विचार करते हैं, अथवा, जो मनसे गुण-दोषादिकका विचार करने में निपुण हैं, अथवा, जो मनसे उत्कट अर्थात् दुरदर्शन, सूक्ष्मविचार, चिरकाल धारण आदि रूप उपयोगसे युक्त है, अथवा, जो मनुकी सन्तान हैं, इसलिये उन्हें मनुष्य कहते हैं ॥३०॥ जो अणिमा आदि आठ ऋद्धियोंकी प्राप्तिके बलसे क्रीड़ा करते हैं उन्हें देव कहते हैं, और देवोंकी गतिको देवगति कहते हैं। अथवा, जो अणिमादि ऋद्धियोंसे युक्त 'देव ' इस प्रकारके शब्द, ज्ञान और व्यवहारमें कारणभूत पर्यायका उत्पादक है ऐसे देवगति नामकर्मके उदयको देवगति कहते हैं । अथवा, देवगति नामकर्मके उदयसे उत्पन्न हुई पर्यायको देवगति कहते हैं। यहां कार्यमें कारणके उपचारसे यह लक्षण किया गया है । कहा भी है __ क्योंकि वे द्रव्य और भावरूप अणिमादि आठ दिव्य गुणों के द्वारा निरन्तर क्रीड़ा करते हैं, और उनका शरीर प्रकाशमान तथा दिव्य है, इसलिये उन्हें देव कहते हैं ॥ १३१ ॥ __आत्म-स्वरूपकी प्राप्ति अर्थात् अपने संपूर्ण गुणोंसे आत्म-स्वरूपमें स्थित होनेको सिद्धि कहते हैं। ऐसी सिद्धिस्वरूप गतिको सिद्धिगति कहते हैं । (यद्यपि सूत्र में सिद्धगति पाठ है १ गो. जी. १४९. द्वितीयो यस्माच्छन्दोऽनर्थकः लब्ध्यपर्याप्तकमनुष्याणां पूर्वोक्तमनुष्यलक्षणाभावेऽपि मनुष्यगतिनामायुःकर्मोदयजनितत्वमात्रेणैव मनुष्यत्वमाचार्यस्येष्ट ज्ञापयति । अनर्थकानि वचनानि किंचिदिष्टं झापयन्त्याचार्यस्य इति न्यायात् । म.प्र.टी. २ अणिमा महिमा चैव गरिमा लघिमा तथा प्राप्तिः प्राकाम्यमीशत्वं वशित्वं चाष्ट सिद्धयः ॥ ३ प्रतिषु ' कार्यकारण ' इति पाठः । ४ गो. जी. १५१. तत्र दिव्वभावहि' इति स्थाने । दिव्यभावहि' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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