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________________ १८२] . छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, १६. स्यादिति चेन्न, असति प्रतिबन्धरि मरणे नियमेन चारित्रमोहक्षपणोमशमकारिणां तदुन्मुखानामुपचारभाजामुपलम्भात् । क्षपणोपशमननिवन्धनत्वाद् मित्रपरिणामानां कथमेकत्वमिति चेत्र, क्षपकोपशमकपरिणामानामपूर्वत्वं प्रति साम्यातदेकत्वोपपत्तेः । पञ्चसु गुणेषु कोऽत्रतनगुणश्चेत्क्षपकस्य क्षायिका, उपशमकस्यौपशमिकः । कर्मणां क्षयोपशमाभ्यामभावे कथं तयोस्तत्र सत्वमिति चेष दोषः, तयास्तत्र सत्यस्योपचारनिवन्धनत्वात् । सम्यक्त्वापेक्षया तु क्षपकस्य क्षायिको भावः दर्शनमोहनीयक्षयमविधाय आपकश्रेण्यारोहणानुपपत्तेः । उपशमकस्यौपशमिकः क्षायिको वा भावः, दर्शनमोहोपशम ................... समाधान नहीं, क्योंकि, प्रतिबन्धक मरणके अभावमें नियमसे चारित्रमोहका उपशम करनेवाले तथा चारित्रमोहका क्षय करनेवाले अतरव उपशमन और क्षपणके सम्मुख हुए और उपचारसे क्षपक या उपशमक संज्ञाको प्राप्त होनेवाले जीवोंके आठवें गुणस्थानमें भी क्षपक या उपशमक संश। बन जाती है। विशेषार्थ-क्षपकश्रेणीमें तो मरण होता ही नहीं है, इसलिये वहां प्रतिबन्धक मरणका सर्वथा अभाव होनेसे क्षपकश्रेणीके आठवें गुणस्थानवाला आगे चलकर नियमसे चारित्रमोहनीयका क्षय करनेवाला है । अतः झपकश्रेणीके आठवें गुणस्थानवी जीवके क्षयक संशा बन जाती है। तथा उपशमश्रेणीस्थ आठवें गुणस्थानके पहले भागमें तो मरण नहीं होता है। परंतु द्वितीयादिक भागों में मरण संभव है, इसलिये यदि ऐसे जीवके द्वितीयादिक भागे।में मरण न हो तो वह भी नियमसे चारित्रमोहनीयका उपशम करता है। अतः इसके भी उपशमक संज्ञा बन जाती है। शंका-पांच प्रकारके भावोंमेले इस गुणस्थानमें कौनसा भाव पाया जाता है ? समाधान - झपकके क्षायिक और उपशमक औपशमिक भाव पाया जाता है । शंका--इस गुणस्थानमें न तो काँका क्षय ही होता है और न उपशम ही होता है, ऐसी अवस्थामें यहां पर क्षायिक या औपशमिक भावका सद्भाव कैसे हो सकता है? समाधान- यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, इस गुणस्थानमें क्षायिक और औपशमिक भावका सद्भाव उपचारसे माना गया है। सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा तो आपकके क्षायिकभाव होता है, क्योंकि, जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं किया है वह क्षपक श्रेणीपर नहीं चढ़ सकता है। और उपशमकके भोपशमिक या क्षायिकभाव होता है, क्योंकि, जिसने दर्शनमोहनीयका उपशम अथवा क्षय १ उपशम श्रेण्यारोहकापूर्वकरणस्य प्रथममागे मरण नास्तीति आगमः। जी. प्र. मरणम्मि णियट्टीपटमे णिदा तहेव पयला य' गी. क. ९९. अतो नियमेन अभ्रियमाणाः प्रथमभागवर्तिनोऽपूर्वकरणाः, द्वितीयादिभागेषु च आयुषि सति जीवतोऽपूर्वकरणाः उपशमश्रेण्या चारित्रमोहं उपशमयति अतएवोपशमका इच्युच्यन्ते । गो. जी., म. प्र., टी. ५५. Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.om www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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