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________________ १, १, १६, j संत-परूवणाणुयोगद्दारे गुणटाणवण्णणं [१८१ सन्तीत्यनुवर्तमाने पुनरिह तदुच्चारणमनर्थकमिति चेन्न, अस्यान्यार्थत्वात् । कथम् ? स गुणस्थानसत्वप्रतिपादकः, अयं तु संयतेषु क्षपकोपशमकभावयोर्वैयधिकरण्यप्रतिपादनार्थ इति । अपूर्वकरणानामन्तः प्रविष्टशुद्धयः क्षपकोपशमकसंयताः, सर्वे संभूय एको गुणः 'अपूर्वकरण' इति । किमिति नामनिर्देशो न कृतश्चेन्न, सामर्थ्यलभ्यत्वात् । अक्षपकानुपशमकानां कथं तव्यपदेशश्चेन्न, भाविनि भूतवदुपचारतस्तत्सिद्धेः । सत्येवमतिप्रसङ्गः उसका फिरसे इस सूत्रमें ग्रहण करना निरर्थक है ? समाधान- ऐसा नहीं है, क्योंकि यहां पर 'सन्ति' पदका दूसरा ही अर्थ लिया गया है। । शंका-वह दूसरा अर्थ किसप्रकारका है ? समाधान-पहले जो 'सन्ति ' पद आया है वह गुणस्थानोंके अस्तित्वका प्रतिपादक है, और यह संयतोंमें क्षपक और उपशमक भावके भिन्न भिन्न अधिकरणपनेके बतानेके लिये है। जिन्होंने अपूर्वकरणरूप परिणामोंमें विशुद्धिको प्राप्त कर लिया है ऐसे क्षपक और उपशमक संयमी जीव होते हैं, और ये सब मिळकर एक अपूर्वकरण गुणस्थान बनता है। शंका-तो फिर यहां पर इसप्रकार नामनिर्देश क्यों नहीं किया ? समाधान-नहीं, क्योंकि, यह बात तो सामर्थ्यसे ही प्राप्त हो जाती है। अर्थात् अपूर्वकरण को प्राप्त हुए उन सब क्षपक और उपशमक जीवोंके परिणामों में अपूर्वपनेकी अपेक्षा समानता पाई जाती है, इसलिये वे सब मिलकर एक अपूर्वकरण गुणस्थान होता है यह अपने आप सिद्ध है। शंका-आठवें गुणस्थानमें न तो कर्मोंका क्षय ही होता है और न उपशम ही, फिर इस गुणस्थानवी जीवोंको क्षपक और उपशमक कैसे कहा जा सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, भावी अर्थमें भूतकालीन अर्थके समान उपचार कर लेनेसे आठवें गुणस्थानमें क्षपक और उपशमक व्यवहारकी सिद्धि हो जाती है शंका-इसप्रकार मानने पर तो अतिप्रसंग दोष प्राप्त हो जायगा? १ इदं गुणस्थानकमन्तर्मुहूर्त कालप्रमाणं भवति । तत्र च प्रथमसमयेऽपि ये प्रपन्नाः प्रपद्यन्ते प्रपत्स्यन्ते च तदपेक्षया जघन्यादीन्युत्कृष्टान्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणाध्यवसायस्थानानि लभ्यन्ते, मतिपत्तणां बहुत्वादध्यवसायानां च विचित्रत्वादिति भावनीयम् । ननु यदि कालत्रयापेक्षा क्रियते तदैतद् गुणस्थानके प्रतिपन्नानामनन्तान्यध्यवसायस्थानानि कस्मान भवन्ति अनन्तजीवरस्य प्रतिपन्नत्वादनन्तैरेव च प्रतिपत्स्यमानत्वादिति । सत्यम् , स्यादेवं यदि तत्प्रतिपत्तां सर्वेषां पृथक् पृथग् भिन्नान्येवाध्यवसायस्थानानि स्युः, तच्च नास्ति, बहूनामेकाध्यवसायस्थानवर्तित्वाद. पीति | xx युगपदेतद् गुणस्थानप्रविष्टानां च परस्परमध्यवसायस्थानव्यावृत्तिलक्षणा निवृत्तिरप्यतीति निवृत्तिगुणस्थानकमप्येतदुच्यते ॥ अभि. रा. को. [ अपुवकरणगुणहाण] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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