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________________ १, १, १६.] संत-पख्वणाणुयोगदारे गुणहाणवण्णणं [१७९ ग्रहणात् । तत्कथमवगम्यत इति चेन्न, उपरिष्टात्तनसंयतगुणस्थाननिरूपणान्यथानुपपत्तितस्तदवगतेः । एषोऽपि गुणः क्षायोपशमिकः प्रत्याख्यानावरणीयकर्मणः सर्वघातिस्पर्द्धकोदयक्षयात्तेषामेव सतां पूर्ववदुपशमात् संज्वलनोदयाच्च प्रत्याख्यानोत्पत्तेः । संयमनिबन्धनसम्यक्त्वापेक्षया सम्यक्त्वप्रतिबन्धककर्मणां क्षयक्षयोपशमोपशमजगुणनिबन्धनः । उक्तं च णहासेस-पमाओ वय-गुण-सोलोलि-मंडिओ णाणी । अणुवसमओ अखवओ झाण-णिलीणो हु अपमत्तो' ॥ ११५॥ चारित्रमोहोपशमकक्षपकेषु प्रथमगुणस्थाननिरूपणार्थमुत्तरसूत्रमाहअपुव्वकरण-पविठ्ठ-सुद्धि-संजदेसु अत्थि उवसमा खवा ॥ १६ ॥ विशेषणोंसे विशेषता अर्थात् भेदको प्राप्त नहीं होते हैं और जिनका प्रमाद नष्ट हो गया है ऐसे संयतोंका ही यहां पर ग्रहण किया है। इसलिये आगेके समस्त संयतगुणस्थानोंका इसमें अन्तर्भाव नहीं होता है। शंका- यह कैसे जाना जाय कि यहां पर आगे प्राप्त होनेवाले अपूर्वकरणादि विशेषणोंसे भेदको प्राप्त होनेवाले संयते'का ग्रहण नहीं किया गया है ? समाधान – नहीं, क्योंकि, यदि यह न माना जाय, तो आगेके संयत-गुणस्थानोंका निरूपण बन नहीं सकता है, इसलिये यह मालूम पड़ता है कि यहां पर अपूर्वकरणादि विशेषणसे रहित केवल अप्रमत्त संयत-गुणस्थानका ही ग्रहण किया गया है। वर्तमान समयमें प्रत्याख्यानावरणीय कर्मके सर्वघाती स्पर्धके उदयक्षय होमेसे और आगामी कालमें उदयमें आनेवाले उन्हींके उदयाभावलक्षण उपशम होनेसे तथा संज्वलन कषायके मन्द उदय होनेसे प्रत्याख्यानकी उत्पत्ति होती है, इसलिये यह गुणस्थान भी क्षायोपशमिक है। संयमके कारणभूत सम्यक्त्वकी अपेक्षा, सम्यक्त्वके प्रतिबन्धक कौके क्षय, क्षयोपशम और उपशमसे यह गुणस्थान उत्पन्न होता है, इसलिये क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक भी है। कहा भी है जिसके व्यक्त और अव्यक्त सभी प्रकारके प्रमाद नष्ट हो गये हैं, जोबत , गुण और शीलोंसे मण्डित है, जो निरन्तर आत्मा और शरीरके भेद-विज्ञानसे युक्त है, जो उपशम और क्षपक श्रेणीपर आरूढ़ नहीं हुआ है और जो ध्यानमें लवलीन है, उसे अप्रमत्तसंयत कहते हैं ॥ ११५॥ __अब आगे चारित्रमोहनीयका उपशम करनेवाले या क्षपण करनेवाले गुणस्थानों से प्रथम गुणस्थानके निरूपण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं। . अपूर्वकरण-प्रविष्ट-शुद्धि संयतोंमें सामान्यसे उपशमक और क्षपक ये दोनों प्रकारके १ गो. जी. ४६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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