SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७८ ] छत्रखंडागमे जीवाणं वत्तावत- माए जो वसइ पमत्तसंजदो होइ । सयल-गुण-सील - कलिओ महत्वई चित्तलायरणो ॥ ११३ ॥ विकहा तहा कसाया इंदिय - णिदा तहेव पणयो य । [१, १, १५. २ चदु- चंदु-पणगेगेगं होति पमादाय परसा ॥ ११४ ॥ क्षायोपशमिकसंयमेषु शुद्धसंयमे! पलक्षित गुणस्थाननिरूपणार्थमुत्तरसूत्रमाह अप्पमत्त संजदा ॥ १५ ॥ प्रमत्तसंयताः पूर्वोक्तलक्षणाः, न प्रमत्तसंयताः अप्रमत्तसंयताः पञ्चदशप्रमादरहितसंयता इति यावत् । शेषाशेषसंयतानामत्रैवान्तर्भावाच्छेष संयत गुणस्थानानाममात्रः स्यादिति चेन्न, संयतानामुपरिष्टात्प्रतिपद्यमान विशेषणाविशिष्टानामस्तप्रमादानामिह जो व्यक्त अर्थात् स्वसंवेद्य और अव्यक्त अर्थात् प्रत्यक्षज्ञानियोंके ज्ञानद्वारा जानने योग्य प्रमादमें वास करता है, जो सम्यक्त्व, ज्ञानादि संपूर्ण गुणोंसे और व्रतोंके रक्षण करने में समर्थ ऐसे शीलोंसे युक्त है, जो (देशसंयतकी अपेक्षा ) महाव्रती है और जिसका आचरण मिश्रित है, अथवा चित्र सारंगको कहते हैं, इसलिये जिसका आचरण सारंगके समान शवलित अर्थात् अनेक प्रकारका है, अथवा, चित्तमें प्रमादको उत्पन्न करनेवाला जिसका आचरण है उसे प्रमत्तसंयत कहते हैं ॥ ११३ ॥ स्त्रीकथा, भक्तकथा, राष्ट्रकथा और अवनिपालकथा ये चार विकथाएं; क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषायें; स्पर्शन, रसना, त्राण, चक्षु और क्षेत्र ये पांच इन्द्रियां; निद्रा और प्रणय इसप्रकार प्रमाद पन्द्रह प्रकारका होता है ॥ ११४ ॥ te क्षायोपशमिक संयम में शुद्ध संयमसे उपलक्षित गुणस्थानके निरूपण करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं सामान्य से अप्रमत्तसंयत जीव होते हैं ॥ १५ ॥ प्रमत्तसंयतों का स्वरूप पहले कह आये हैं, जिनका संयम प्रमाद सहित नहीं होता हैं उन्हें अप्रमत्तसंयत कहते हैं, अर्थात् संयत होते हुए जिन जीवोंके पन्द्रह प्रकारका प्रमाद नहीं पाया जाता है, उन्हें अप्रमत्तसंयत समझना चाहिये । Jain Education International शंका- बाकी संपूर्ण संयतों का इसी अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें अन्तर्भाव हो जाता है, इसलिये शेष संयतगुणस्थानोंका अभाव हो जायगा ? समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि, जो आगे चलकर प्राप्त होनेवाले अपूर्वकरणादि १. गो. जी. ३३. चित्र प्रमादमिश्रं लातीति चित्रलं चित्रलं आचरणं यस्यासौ चित्रलाचरणः । अथवा चित्रलः सारंगः, तद्वत् शवलितं आचरणं यस्यासौ चित्रलाचरणः । अथवा चिचं लातीति चिचलं, चितलं आचरणं यस्यासौ चित्तलाचरणः । जी. प्र. टी. २ गो. जी. ३४. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy