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________________ १७४ ] छक्खडागमे जीवाणं [ १, १, १३. नासौ संयत इति विरोधान्नायं गुणो घटत इति चेदस्तु गुणानां परस्परपरिहारलक्षणो विरोधः इष्टत्वात्, अन्यथा तेषां स्वरूपहानिप्रसङ्गात् । न गुणानां सहानवस्थानलक्षणो विरोधः सम्भवति, सम्भवेद्वा न वस्त्वस्ति तस्यानेकान्तनिबन्धनत्वात् । यदर्थक्रियाकारि तद्वस्तु | सा च नैकान्ते एकानेकाभ्यां प्राप्तनिरूपितानवस्थाभ्यामर्थक्रियाविरोधात् । न चैतन्याचैतन्याभ्यामनेकान्तस्तयोर्गुणत्वाभावात् । सहभुवो हि गुणाः, न चानयोः सहभूतिरस्ति असति विबन्धर्यनुपलम्भात् । भवति च विरोधः समाननिबन्धनत्वे सति । न चात्र विरोधः संयमासंयमयोरेकद्रव्यवर्तिनोस्त्रसस्थावरनिबन्धनत्वात् । औदयिकादिषु पंचसु गुणेषु कं गुणमाश्रित्य संयमासंयमगुणः समुत्पन्न इति चेत्क्षायोपशमिकोऽयं गुणः अप्रत्याख्याना होता है वह संयत नहीं हो सकता है, क्योंकि, संयमभाव और असंयमभावका परस्पर विरोध है | इसलिये यह गुणस्थान नहीं बनता है । समाधान - विरोध दो प्रकारका है, परस्परपरिहारलक्षण विरोध और सहानवस्थालक्षण विरोध । इनमेंसे एक द्रव्यके अनन्त गुणों में परस्परपरिहारलक्षण विरोध इष्ट ही है, क्योंकि, यदि गुणों का एक दूसरेका परिहार करके अस्तित्व नहीं माना जाये तो उनके स्वरूपकी हानिका प्रसंग आता है । परंतु इतने मात्रसे गुणों में सहानवस्था लक्षण विरोध संभव नहीं है । यदि नाना गुणोंका एकसाथ रहना ही विरोधस्वरूप मान लिया जावे तो तुका अस्तित्व ही नहीं बन सकता है, क्योंकि, वस्तुका सद्भाव अनेकान्त-निमित्तक ही होता है | जो अर्थक्रिया करनेमें समर्थ है वह वस्तु है । परंतु वह अर्थक्रिया एकान्तपक्षमें नहीं बन सकती है, क्योंकि, अर्थक्रियाको यदि एकरूप माना जावे तो पुनः पुनः उसी अर्थक्रियाकी प्राप्ति होनेसे, और यदि अनेकरूप माना जावे तो अनवस्था दोष आनेसे एकान्तपक्ष में अर्थक्रिया होने में विरोध आता है । ऊपर के कथनसे चैतन्य और अचैतन्यके साथ भी अनेकान्त दोष नहीं आता है, क्योंकि, चैतन्य और अचैतन्य ये दोनों गुण नहीं हैं । जो सहभावी होते हैं उन्हें गुण कहते हैं । परंतु ये दोनों सहभावी नहीं है, क्योंकि बंधरूप अवस्थाके नहीं रहने पर चैतन्य और अचैतन्य ये दोनों एकसाथ नहीं पाये जाते हैं । दूसरे विरुद्ध दो धर्मोकी उत्पत्तिका कारण यदि समान अर्थात् एक मान लिया जावे तो विरोध आता है, परंतु संयमभाव और असंयमभाव इन दोनों को एक आत्मामें स्वीकार कर लेने पर भी कोई विरोध नहीं आता है, क्योंकि, उन दोनों की उत्पत्ति के कारण भिन्न भिन्न हैं । संयमभावकी उत्पत्तिका कारण त्रस हिंसासे विरतिभाव है और असंयमभावकी उत्पत्तिका कारण स्थावरहिंसा से अविरतिभाव है । इसलिये संयतासंयत नामका पांचवां गुणस्थान बन जाता है । शंका- औदयिक आदि पांच भावोंमेंसे किस भावके आश्रयसे संयम संयम भाव पैदा होता है ? समाधान संयम संयम भाव क्षायोपशमिक है, क्योंकि, अप्रत्याख्यानावरणीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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