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________________ १, १, १३.] संत-परूवणाणुयोगदारे गुणहाणवण्णणं [१७३ हेडिल्लाणं सयल-गुणहाणाणमसंजदत्तं परूवेदि । उवरि असंजमभावं किण्ण परूवेदि त्ति उत्ते ण परूवेदि, उवरि सव्वत्थ संजमासंजम-संजम-विसेसणोवलंभादो त्ति । उत्तं च सम्माइट्टी जीवो उवइई पवयणं तु सद्दहदि । सदहदि असभावं अजाणमाणो गुरु-णियोगा' ॥ ११० ॥ णो इंदिएसु विरदो णो जीवे थावरे तसे चावि । जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइडी अविरदो सों ॥ १११ ॥ एवं सम्माइहि-वयणं उवरिम-सव्व-गुणहाणेसु अणुवट्टइ गंगा-णई-पवाहो ब्य। देसविरइ-गुणट्ठाण-परूवणट्टमुत्तर-सुत्तमाहसंजदासंजदा ॥ १३॥ संयताश्च ते असंयताश्च संयतासंयताः। यदि संयतः, नासावसंयतः। अथासंयतः, लिये वह अपनेसे नीचेके भी समस्त गुणस्थानोंके असंयतपनेका निरूपण करता है। __वह असंयत पद ऊपर अर्थात् पांचवें आदि गुणस्थानोंमें असंयमभावका प्ररूपण क्यों नहीं करता है इसप्रकारकी शंकाके होने पर आचार्य उत्तर देते हैं कि पांचवें आदि गुणस्थानों में वह असंयत पद असंयमभावका प्ररूपण नहीं करता है, क्योंकि, ऊपर सब जगह संयमासंयम और संयम विशेषण ही पाया जाता है। कहा भी है सम्यग्दृष्टि जीव जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा उपदिष्ट प्रवचनका तो श्रद्धान करता ही है, किंतु किसी तत्वको नहीं जानता हुआ गुरुके उपदेशसे विपरीत अर्थका भी श्रद्धान कर लेता है ॥ ११०॥ जो इन्द्रियोंके विषयोंसे तथा त्रस और स्थावर जीवोंकी हिंसासे विरक्त नहीं है, किंतु जिनेन्द्रदेवद्वारा कथित प्रवचनका श्रद्धान करता है वह अविरतसम्यग्दृष्टि है ॥ १११ ॥ इस सूत्रमें जो सम्यग्दृष्टि पद है, वह गंगा नदीके प्रवाहके समान ऊपरके समस्त गुणस्थानोंमें अनुवृत्तिको प्राप्त होता है । अर्थात् पांचवें आदि समस्त गुणस्थानोंमें सम्यग्दर्शन पाया जाता है। अब देशविरति गुणस्थानके प्ररूपण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंसामान्यसे संयतासंयत जीव होते हैं ॥१३॥ जो संयत होते हुए भी असंयत होते हैं उन्हें संयतासंयत कहते हैं। शंका-जो संयत होता है वह असंयत नहीं हो सकता है, और जो असंयत १ गो.जी. २७. २ गो. जी. २९. अंपि'शन्दैनानुकम्पादिगुणसद्भावानिरपराधहिंसा न करोतीति सूच्यते । मं.प्र, टी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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