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________________ १६४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, १०. सम्यगसम्यगुभयदृष्टयालम्बनवस्तुव्यतिरिक्तवस्त्वनुपलम्भात् । ततोऽसन् एष गुण इति न, विपरीताभिनिवेशतोऽसदृष्टित्वात् । तर्हि मिथ्यादृष्टिर्भवत्वयं नास्य सासादनव्यपदेश इति चेन्न, सम्यग्दर्शनचरित्रप्रतिबन्ध्यनन्तानुबन्ध्युदयोत्पादितविपरीताभिनिवेशस्य तत्र सत्त्वाद्भवति मिथ्यादृष्टिरपि तु मिथ्यात्वकोदयजनितविपरीताभिनिवेशाभावात् न तस्य मिथ्यादृष्टिव्यपदेशः, किन्तु सासादन इति व्यपदिश्यते । किमिति मिथ्यादृष्टिरिति अतिरिक्त और कोई चौथी दृष्टि है नहीं, क्योंकि, समीचीन, असमीचीन और उभयरूप दृष्टिके आलम्बनभूत वस्तुके अतिरिक्त दूसरी कोई वस्तु पाई नहीं जाती है। इसलिये सासादन गुणस्थान असत्स्वरूप ही है । अर्थात् सासादन नामका कोई स्वतन्त्र गुणस्थान नहीं मानना चाहिये? समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि सासादन गुणस्थानमें विपरीत अभिप्राय रहता है, इसलिये उसे असद्दष्टि ही समझना चाहिये। - शंका- यदि ऐसा है तो इसे मिथ्यादृष्टि ही कहना चाहिये, सासादन संज्ञा देना उचित नहीं है? समाधान- नहीं, क्योंकि, सम्यग्दर्शन और स्वरूपाचरण चारित्रका प्रतिबन्ध करनेवाली अनन्तानुबन्धी कषायके उदयसे उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश दूसरे गुणस्थानमें पाया जाता है, इसलिये द्वितीय गुणस्थानवी जीव मिथ्यादृष्टि है। किंतु मिथ्यात्वकर्मके उदयसे उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश वहां नहीं पाया जाता है, इसलिये उसे मिथ्यादृष्टि नहीं कहते हैं, केवल सासादनसम्यग्दृष्टि कहते हैं। विशेषार्थ-विपरीताभिनिवेश दो प्रकारका होता है, अनन्तानुबन्धीजनित और मिथ्यात्वजनित । उनमेंसे दूसरे गुणस्थानमें अनन्तानुबन्धीजनित विपरीताभिनिवेश ही पाया जाता है, इसलिये इसे मिथ्यात्वगुणस्थानसे स्वतन्त्र गुणस्थान माना है। १ यदि तत्वरुचिस्तदा सम्यग्दृष्टिरेवासौ, यद्यतत्वचिस्तदा मिथ्याष्टिरेवासी, ययुभयरुचिस्तदा सम्यग्मिध्यादृष्टिरेवासौ, यद्यनुभयरुचिस्तदा आत्माभावः स्यात् । गो. जी., मं. प्र, टी. १९. २ ननु सम्यग्दर्शनघातकस्यानंतानुबंधिनः कथं दर्शनमोहत्वाभावः ? इति चेत् न, तस्य चारित्रघातकतीव्रतमानुभागमहिम्ना चारित्रमोहत्वस्यैव युक्तत्वात् । तर्हि तस्मात् सम्यग्दर्शनविनाशः ? इति चेत्, अनन्तानुबध्युदये सति पडावलिरूपस्तोककालव्यवधानेऽपि मिथ्यात्वकोदयाभिमुख्ये सत्येव सम्यग्दर्शन विनाशसंभवात् । अतएव मिथ्यात्वोदयनिरपेक्षतया सासादनत्वं भवाति पारिणामिकभावत्वमुक्तम् । परिणामः स्वभावः तस्माद्भवः पारिणामिक इति व्युत्पत्तेः। नन्वेवं कथमनन्तानुबंध्यन्यतमोदयानाशितसम्यक्त्व इत्युच्यते ? इति चेत् न, मिथ्यात्वोदयाभिमुख्यसन्निहितस्य अनन्तानुबंध्युदयस्य सम्यग्दर्शन विनाशसंभवेन तदुदयात्तद्विनाश इति वचनाविरोधात् । किंबहुना अनन्तानुबंधिनः सम्यक्त्वविनाशसामर्थ्यशक्तिसंभवेऽपि मिथ्यात्वोदयाभिमुख्य सत्येव तत्सामर्थ्यव्यक्तिरिति सिद्धो नः सिद्धान्तः । गो. जी., मं.प्र., टी. १९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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