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________________ प्रगट की कि तीसरे ग्रंथराज महाधवलकी भी प्रतिलिपि हो जाय और इन ग्रंथोंकी सुरक्षा तथा पठनपाठनरूप सदुपयोगके लिये अनेक प्रतियां कराकर भिन्न भिन्न स्थानोंमें रक्खी जावें । किंतु इस बातपर भट्टारकजी व पंचलोग राजी नहीं हुए । तथापि महाधवलकी कनाडी प्रतिलिपि पंडित नोमिराजजी द्वारा किये जानेकी व्यवस्था करा दी गई । यह कार्य सन् १९१८ से पूर्व पूर्ण हो गया। इसके पश्चात् सेठ हीराचंदजीके प्रयत्नसे महाधवलकी नागरी प्रतिलिपि पं. लोकनाथजी शास्त्रीद्वारा लगभग चार वर्षमें पूरी हुई । इसप्रकार इन ग्रंथोंका प्रतिलिपि-कार्य सन् १८९६ से १९२२ तक अर्थात् २६ वर्ष चला, और इतने समयमें इनकी कनाडी लिपि पं. देवराज सेठी, पं. शांतप्पा इन्द्र, पं. ब्रह्मथ्य इन्द्र तथा पं. नेमिराज सेठी द्वारा; तथा नागरी लिपि पं. ब्रह्मसूर शास्त्री, पं. गजपति उपाध्याय और पं. लोकनाथजी शास्त्री द्वारा की गई । इस कार्यमें लगभग वीस हजार रुपया खर्च हुआ। धवल और जयधवलकी प्रतिके बाहर निकलनेका इतिहास : धवल और जयधवलकी नागरी प्रतिलिपि करते समय श्री गजपति उपाध्यायने गुप्तरीतिसे उनकी एक कनाडी प्रतिलिपि भी कर ली और उसे अपने ही पास रख लिया। इस कार्य में विशेष हाथ उनकी विदुषी पत्नी लक्ष्मीबाईका था, जिनकी यह प्रबल इच्छा थी कि इन ग्रंथोंके पठनपाठनका प्रचार हो । सन् १९१५ में उन प्रतिलिपियों को लेकर गजपति उपाध्याय सेठ हीराचंदजीके पास सोलापुर पहुंचे और न्योछावर देकर उन्हें अपने पास रखने के लिये कहा। किंतु सेठजीने उन्हें अपने पास रखना स्वीकार नहीं किया, तथा अपने घनिष्ट मित्र सेठ माणिकचंदजी को भी लिख दिया कि वे भी उन प्रतियों को अपने पास न रकावें । उनके ऐसा करनेका कारण यही जाना जाता है कि वे मूडबिद्रीसे बाहर प्रतियोंको न ले जाने के लिये मूडविद्रोके पंचों और भट्टारकजी से वचनबद्ध हो चुके थे। अतएव प्रतियों के प्रचारकी भावना रखते हुए भी उन्होंने प्रतियों को अपने पास रखना नैतिक दृष्टि से उचित नहीं समझा । तब गजपति उपाध्याय उन प्रतियोंको लेकर सहारनपुर पहुंचे, और वहां श्री लाला जम्बूप्रसादजी रईसने उन्हें यथोचित पुरस्कार देकर उन प्रतियोंको अपने मंदिरजीमें विराजमान कर दिया । गजपति उपाध्यायने लालाजी को यह आश्वासन दिया था कि वे स्वयं उन कनाडी प्रतियोंकी नागरी लिपि कर देंगे। किंतु पुत्र की बीमारीके कारण उन्हें शीघ्र घर लौटना पड़ा। पश्चात् उनकी पत्नी भी बीमार हुई और उनका देहान्त हो गया। इन संकटोंके कारण उपाध्यायजी फिर सहारनपुर न जा सके और सन् १९२३ में उनका भी शरीरान्त हो गया। लालाजीने उन ग्रंथोंकी नागरी प्रतिलिपि पण्डित विजयचंद्रय्या और पं. सीताराम शास्त्रोके द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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