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वहांसे लौटने पर वे तथा सेठ माणिकचंदजी अपने अपने व्यावसायिक कार्योंमें गुंथ गये और कोई दश वर्षतक प्रतिलिपि करानेकी बात उनके मनमें ही रह गई।
इसी बीचमें अजमेरनिवासी श्रीयुक्त सेठ मूलचंदजी सोनी, श्रीयुक्त पं. गोपालदासजी वरैयाके साथ, मूडविद्रीकी यात्राको गये । उस समय उन्होंने सिद्धान्त ग्रंथोंके दर्शनकर वहांके पंचों और ब्रह्मसूरि शास्त्रांके साथ यह बात निश्चित की कि उन ग्रंथोंकी प्रतिलिपियां की जांय । तदनुसार लेखनकार्य भी प्रारंभ हो गया। यात्रासे लौटते समय सेठ मूलचंदजी सोनी सोलापुर और बम्बई भी गये और उन्होंने सेठ हीराचंदजी व माणिकचंदजीको भी अपने उक्त कार्यकी सूचना दी, जिसका उन्होंने अनुमोदन किया । श्रीमान् सिंघई पन्नालालजी अमरावतीवालोंसे ज्ञात हुआ है कि जब उनके पिता स्व. सिंघई वंशीलाल जी सं, १९४७ ( सन् १८९० ) के लगभग मूडविद्रीकी यात्राको गये थे तब ब्रह्मसूरि शास्त्री द्वारा लेखनकार्य प्रारंभ हो गया था। किंतु लगभग तीनसौ श्लोक प्रमाण प्रतिलिपि होनेके पश्चात् ही वह कार्य बन्द पड़ गया, क्योंकि, सेठजी वह प्रतिलिपि अजमेरके लिये चाहते थे और यह बात मूडविद्रीके भट्टारकजी व पंचोंको इष्ट नहीं थी।
इसी विषयको लेकर सं. १९५२ ( सन् १८९५) में सेठ माणिकचंदजी और सेठ हीराचंदजी के बीच पुनः पत्रव्यवहार हुआ, जिसके फलस्वरूप सेठ हीराचंदजीने प्रतिलिपि करानेके खर्च के लिये चन्दा एकत्र करनेका बीड़ा उठाया । उन्होंने अपने पत्र जैनबोधकमें सौ सौ रुपयोंके सहायक बननेके लिये अपील निकालना प्रारंभ कर दिया । फलतः एक वर्षके भीतर चौदह हजारसे ऊपरके चन्देकी स्वीकारता आगई । तब सेठ हीराचंदजीने सेठ माणिकचंदजीको सोलापुर बुलाया और उनके समक्ष ब्रह्मसूरि शास्त्रीसे एकसौ पच्चीस (१२५) रुपया मासिक वृत्तिपर प्रतिलिपि करानेकी बात पक्की होगई । उनकी सहायताके लिये मिरजनिवासी गजपति शास्त्री भी नियुक्त कर दिये गये । ये दोनों शास्त्री मूडविद्री पहुंचे और उसी वर्षकी फाल्गुन शुक्ला ७ बुधवारको ग्रंथकी प्रतिलिपि करनेका कार्य प्रारंभ हो गया । उसके एक माह और तीन दिन पश्चात् चैत्र शुक्ला १० को ब्रह्मसूरि शास्त्रीने सेठ हीराचंदजीको पत्रद्वारा सूचित किया कि जयधवलके पन्द्रह पत्र अर्थात् लगभग १५०० श्लोकोंकी कापी हो चुकी । इसके कुछ ही पश्चात् ब्रह्मसूरि शास्त्री अस्वस्थ हो गये और अन्ततः स्वर्गवासी हुए।
ब्रह्मसूरि शास्त्रीके पश्चात् गजपति शास्त्रीने प्रतिलेखनका कार्य चालू रक्खा और लगभग सोलह वर्षमें धवल और जयधवलकी प्रतिलिपि नागरी लिपिमें पूरी की। इसी अवसरमें मूडविदीके पण्डित देवराज सेठी, शांतप्पा उपाध्याय तथा ब्रह्मय्य इंद्रद्वारा उक्त ग्रंथोंकी कनाडी लिपिमें भी प्रतिलिपि कर ली गई । उस समय सेठ हीराचंदजी पुनः मूडविद्री पहुंचे और उन्होंने यह इच्छा
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