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________________ १३६ ] सुप्रसिद्धस्योपलम्भात् । इन्द्रियवैकल्यमनोऽनवस्थानानध्यवसायालोकाद्यभावावस्थायां क्षयोपशमस्य प्रत्यक्षविषयव्यापाराभावात्तत्रात्मनोऽनिन्द्रियत्वं स्यादिति चेन्न, गच्छतीति गौरिति व्युत्पादितस्य गोशब्दस्यागच्छद्रोपदार्थेऽपि प्रवृत्युपलम्भात् । भवतु तत्र रूढिबललाभादिति चेदत्रापि तल्लाभादेवास्तु न कश्चिद्दोषः । विशेषाभावतस्तेषां सङ्करव्यतिकररूपेण व्यापृतिः व्याप्नोतीति चेन्न, प्रत्यक्षे नीतिनियमिते रतानीति प्रतिपादनात् । सङ्करव्यतिकराभ्यां व्यापृतिनिराकरणाय स्वविषयनिरतानीन्द्रियाणि इति वा वक्तव्यम् । स्वेषां विषयः स्वविषयस्तत्र निश्चयेन निर्णयेन रतानीन्द्रियाणि । संशयविपर्य छक्खंडागमे जीवाणं शंका- इन्द्रियोंकी विकलता, मनकी चंचलता, और अनध्यवसाय के सद्भावमें तथा प्रकाशादिकके अभावरूप अवस्थामें क्षयोपशमका प्रत्यक्ष विषयमें व्यापार नहीं हो सकता है, इसलिये उस अवस्थामै आत्माके अनिन्द्रियपना प्राप्त हो जायगा ? समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि, जो गमन करती है उसे गौ कहते हैं । इसतरह 'गो' शब्द की व्युत्पत्ति हो जाने पर भी नहीं गमन करनेवाले गौ पदार्थ में भी उस शब्दको प्रवृत्ति पाई जाती है । शंका - भले ही गोपदार्थ में रूढ़िके बलसे गमन नहीं करती हुई अवस्था में भी गोशब्दकी प्रवृत्ति होओ। किंतु इन्द्रियवैकल्यादिरूप अवस्थामें आत्माके इन्द्रियपन प्राप्त नहीं हो सकता है ? [ १, १, ४. समाधान - यदि ऐसा है तो आत्मा में भी इन्द्रियोंकी विकलता आदि कारणोंके रहने पर रूढ़िके बल से इन्द्रिय शब्दका व्यवहार मान लेना चाहिये । ऐसा मान लेने में कोई दोष आता है। शंका - इन्द्रियोंके नियामक विशेष कारणोंका अभाव होनेसे उनका संकर और व्यतिकररूपसे, व्यापार होने लगेगा । अर्थात् या तो वे इन्द्रियां एक दूसरी इन्द्रियके विषयको ग्रहण करेंगी या समस्त इन्द्रियोंका एक ही साथ व्यापार होगा ? समाधान - ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, इन्द्रियां अपने नियमित विषयमें ही रत हैं, अर्थात् व्यापार करती हैं, ऐसा पहले ही कथन कर आये हैं । इसलिये संकर और व्यतिकर दोष नहीं आता है । अथवा, संकर और व्यतिकरद्वारा विषयमें व्यापाररूप दोष के निराकरण करनेके लिये इन्द्रियां अपने अपने विषयमें रत हैं, ऐसा लक्षण कहना चाहिये । अपने अपने विषयको स्वविषय कहते हैं । उसमें जो निश्वयसे अर्थात् अन्य इन्द्रियके विषय में प्रवृत्ति न करके केवल अपने विषयमें ही रत हैं उन्हें इन्द्रिय कहते हैं । १ इत आरभ्य इन्द्रिय ' शब्दस्य व्याख्यान्तं C इत्यादि १६५ तमगाथायाः जीवतत्वप्रदीपिकाटीकया प्रायेण समानः | Jain Education International यावत्समग्रपाठः गो. जीवकांडस्य ' मदि आवरण २ सर्वेषां युगपत्प्राप्तिः सङ्करः । परस्परविषयगमनं व्यतिकरः । न्या. कु. च. पृ. ३६०. ३ ' नीति ' इति पाठो नास्ति । गो. जी., जी. प्र., टी. १६५. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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