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________________ १, १, ४ . ] संत- परूवणाणुयोगद्दारे मम्गणासरूचवण्णणं [ १३५ नामपि गतिव्यपदेशः स्यादिति चेन्न, गतिकर्मणः समुत्पन्नस्यात्मपर्यायस्य ततः कथञ्चिद्भेदादविरुद्ध प्राप्तितः प्राप्तकर्मभावस्य गतित्वाभ्युपगमे पूर्वोक्तदोषानुपपत्तेः । भवाद्भवसंक्रान्तिर्वा गतिः । सिद्धगतिस्तद्विपर्यासात् । उक्तं च गइ - कम्म - विणिग्वत्ता जा चेट्ठा सा गई मुणेयव्वा । जीवा हु चाउरंगं गच्छेति ति य गई होइ ॥ ८४ ॥ प्रत्यक्षनिरतानीन्द्रियाणि । अक्षाणीन्द्रियाणि । अक्षमक्षं प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षं विषयोऽजो बोधो वा । तत्र निरतानि व्यापृतानि इन्द्रियाणि । शब्दस्पर्शरसरूपगन्धज्ञानावरणकर्मणां क्षयोपशमाद् द्रव्येन्द्रियनिबन्धनादिन्द्रियाणीति यावत् । भावेन्द्रियकार्यत्वाद् द्रव्यस्येन्द्रियव्यपदेशः । नेयमदृष्टपरिकल्पना कार्यकारणोपचारस्य जगति समाधान - ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, गति नामकर्मके उदयसे जो आत्माके पर्याय उत्पन्न होती है वह आत्मा से कथंचित् भिन्न है अतः उसकी प्राप्ति अविरुद्ध है । और इसीलिये प्राप्तिरूप क्रिया के कर्मपनेको प्राप्त नारकादि आत्मपर्यायके गतिपना मानने में पूर्वोक्त दोष नहीं आता है । अथवा, एक भवसे दूसरे भवमें जानेको गति कहते हैं। ऊपर जो गतिनामा नामकर्मके उदयसे प्राप्त होनेवाली पर्यायविशेषको अथवा एक भवसे दूसरे भवमें जानेको गति कह आये हैं, ठीक इससे विपरीतस्वभाववाली सिद्धगति होती है। कहा भी है गतिनामा नामकर्मके उदयसे जो जीवकी चेष्टाविशेष उत्पन्न होती है उसे गति कहते । अथवा, जिसके निमित्तसे जीव चतुर्गतिमें जाते हैं उसे गति कहते हैं ॥ ८४ ॥ जो प्रत्यक्षमें व्यापार करती हैं उन्हें इन्द्रियां कहते हैं । जिसका खुलासा इसप्रकार है, अक्ष इन्द्रियको कहते हैं, और जो अक्ष अक्षके प्रति अर्थात् प्रत्येक इन्द्रियके प्रति रहता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं । जो कि इन्द्रियों का विषय अथवा इन्द्रियजन्य ज्ञानरूप पड़ता है। उस इन्द्रियविषय अथवा इन्द्रिय-ज्ञानरूप प्रत्यक्षमें जो व्यापार करती हैं उन्हें इन्द्रियां कहते हैं । वे इन्द्रियां शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध नामके ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे और द्रव्येन्द्रियों के निमित्तसे उत्पन्न होती हैं। क्षयोपशमरूप भावेन्द्रियोंके होने पर ही द्रव्येन्द्रियों की उत्पत्ति होती है, इसलिये भावेन्द्रियां कारण हैं और द्रव्येन्द्रियां कार्य हैं और इसलिये द्रव्येन्द्रियों को भी इन्द्रिय यह संज्ञा प्राप्त है । अथवा, उपयोगरूप भावेन्द्रियों की उत्पत्ति द्रव्येन्द्रियोंके निमित्तसे होती है, इसलिये भावेन्द्रियां कार्य हैं और द्रव्येन्द्रियां कारण हैं । इसलिये भी द्रव्येन्द्रियों को इन्द्रिय यह संज्ञा प्राप्त । यह कोई अदृष्टकल्पना नहीं है, क्योंकि, कार्यगत धर्मका कारण में और कारणगत धर्मका कार्यमें उपचार जगत् में प्रसिद्धरूपसे पाया जाता है । १ गइउदय जपज्जाया चउगड़गमणस्स हेउ वा हु गई । णारयतिरिक्खमाणुसदेवगह त्ति य हवे चदुधा ॥ गो. जी. १४६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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