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________________ ११२] छक्खंडागमे जीवाणं [१, १, २. अट्ठासी-अहियारेसु चउण्हमहियाराणमस्थि णिदेसो । पढमो अबंधयाणं विदियो तेरासियाण बोद्धयो ।। ७६ ॥ तदियो य णियइ-पक्खे हवइ चउत्थो ससमयम्मि ॥ पढमाणियोगो पंच-सहस्स-पदेहि ५००० पुराणं वण्णेदि । उत्तं च बारसविहं पुराणं जगदिदं जिणवरेहि सव्वेहिं । तं सव्वं वण्णेदि हु जिणवंसे रायवंसे य ॥ ७७ ॥ पढमो अरहताणं विदियो पुण चक्कवट्टि-वंसो दु । विज्जहराण तदियो चउत्थयो वासुदेवाणं ॥ ७८ ॥ चारण-वंसो तह पंचमो दु छटो य पण्ण-समणाणं । सत्तमओ कुरुवंसो अट्ठमओ तह य हरिवंसो ॥ ७९ ॥ णवमा य इक्खयाणं दसमो वि य कासियाण बोद्धयो । वाईणेकारसमो बारसमो णाह वंसो दु॥ ८॥ पुव्वगयं पंचाणउदि-कोडि-पण्णास-लक्ख-पंच-पदेहि ९५५०००००५ उपाय. इस सूत्र नामक अर्थाधिकारके अठासी अधिकारोंमेंसे चार अधिकारोंका नामनिर्देश मिलता है। उनमें पहला अधिकार अबन्धकोंका दूसरा त्रैराशिकवादियोंका, तीसरा नियतिवादका समझना चाहिये । तथा चौथा अधिकार स्वसमयका प्ररूपक है ॥ ७६॥ दृष्टिवाद अंगका प्रथमानुयोग अर्थाधिकार पांच हजार पदोंके द्वारा पुराणोंका वर्णन करता है। कहा भी है जिनेन्द्रदेवने जगतमें बारह प्रकारके पुराणोंका उपदेश दिया है । अतः वे समस्त पुराण जिनवंश और राजवंशोंका वर्णन करते हैं। पहला अरिहंत अर्थात् तीर्थंकरोंका, दूसरा चक्रवर्तियोंका, तीसरा विद्याधरोंका, चौथा नारायण, प्रतिनारायणोंका, पांचवां चारणोंका, छटवां प्रज्ञाश्रमणोंका वंश है। इसीतरह सातवां कुरुवंश, आठवां हरिवंश, नववां इक्षाकुवंश, दशवां काश्यपवंश, ग्यारहवां वादियोंका वंश और बारहवां नाथवंश है ॥७७-८० ॥ दृष्टिवाद अंगका पूर्वगत नामका अर्थाधिकार पंचानवे करोड़ पचास लाख और पांच १ सुत्ताई अट्ठासीति भवंति । तं जहा, उजुगं परिणयापरिणयं बहुभंगियं विप्पच्चइयं विनयचरियं अणंतरं परंपरं समाणं संजूहं [ मासाणं] संभिन्नं अहाच्चयं [ अहव्वायं नन्द्यो ] सोवत्थि [ वत्तं यं ] गंदावत्तं वहुलं पुट्ठापुढे वियाव एवंभूयं दुआवत्तं वत्तमाणप्पयं समभिरूढं सवओमदं पणाम [परसासं नंद्या ] दुपडिग्गहं इच्चेयाइं बावीसं त्ताई छिण्णछेअणइआई ससमयसुत्तपरिवाडीए इच्चेआई बावीसं सुत्ताई अच्छिन्नछेयनइयाई आजीवियसुत्तपरिवाडीए इच्चेआई बावीसं सुत्ता तिकणइयाई तेरासियसुत्तपरिवाडीए, इच्चेआई बावीसं सुत्ताई चउक्कणइयाइं ससमयसुत्तपरिवाडीए एवामेव सपुवावरेणं अट्ठासीति सुत्ताई भवंति । सम. सू. १४७. २ 'जं दि8 ' इति पाठः प्रतिभाति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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