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________________ १०४] छक्खंडागमे जीवहाणं [ १, १, २. विजय-वैजयन्त-जयन्तापराजित-सर्वार्थसिद्धाख्यानि पंचानुत्तराणि । अनुत्तरेष्वौपपादिकाः अनुत्तरोपपादिकाः, ऋषिदास-धन्य-सुनक्षत्र-कार्तिकेयानन्द-नन्दन-शालिभद्राभय-वारिषेणचिलातपुत्रा इत्येते दश वर्द्धमानतीर्थकरतीर्थे । एवमृषभदीनां त्रयोविंशतेस्तीर्थेष्वन्यज्ये एवं दश दशानगाराः दारुणानुपसर्गानिर्जित्य विजयाद्यनुत्तरेपूत्पन्नाः इत्येवमनुत्तरौपपादिकाः दशास्यां वर्ण्यन्त इत्यनुत्तरौपपादिकदशा । पण्हवायरणं णाम अंगं तेणउदिलक्ख-सोलह-सहस्स-पदेहि ९३१६००० अक्खेवणी णिक्खेवणी संवेयणी णिव्वेयणी जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि ये पांच अनुत्तर विमान हैं । जो अनुत्तरों में उपपादजन्मसे पैदा होते हैं, उन्हें अनुत्तरौपपादिक कहते हैं । ऋषिदास, धन्य, सुनक्षत्र, कार्तिकेय, आनन्द, नन्दन, शालिभद्र, अभय वारिषेण और चिलातपुत्र ये दश अनुत्तरौपपादिक वर्धमान तीर्थकरके तीर्थमें हुए हैं । इसीतरह ऋषभनाथ आदि तेवीस तीर्थकरोंके तीथेम अन्य दश दश महासाधु दारुण उपसगौंको जीतकर विजयादिक पांच अनुत्तरोंमें उत्पन्न हुए । इसतरह अनुत्तरोंमें उत्पन्न होनेवाले दश साधुओंका जिसमें वर्णन किया जावे उसे अनुत्तरौपपादिकदशा नामका अंग कहते हैं। प्रश्नव्याकरण नामका अंग तेरानवे लाख सोलह हजार पदोंके द्वारा आपेक्षणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निवेदनी इन चार कथाओंका तथा (भूत, भविष्यत् और वर्तमानकालसंबन्धी धन, धान्य, लाभ, अलाभ, जीवित, मरण, जय और पराजय संबन्धी प्रश्नोंके पूंछनेपर उनके) उपायका वर्णन करता है। १ कार्तिक नंद ' इति पाठः। त. रा. वा. पृ. ५१. कार्तिकेय नंद ' इति पाठः गो. जी., जी. प्र., टी. ३५७. २ अणुत्तरोववाइयदसासु णं अणुत्तरोववाइयाणंxxxतित्थकरसमोसरणाइ परमंगजगाहयाणि जिणातिसेसा य बहुविसेसा जिणसीसाणं चेव समणगणपवरगंधहत्थीणंxxअणगारमहरिसणं वण्णओxxअवसेसकम्मविसयविरत्ता नरा जहा अब्भुति धम्ममुराल संजमं तवं चावि बहुविहप्पगारं जह बहूणि वासाणि अणुचरित्ता आराहियनाणदंसणचरित्तजोगाxxजे य जहिं जत्तियाणि भत्ताणि छेअइत्ता लद्धण य समाहिमुत्तमझाणजोगजुत्ता उववन्ना मुणिवरोत्तमा जह अणुत्तरेसु पावंति जह अणुत्तरं तत्थ विसयसोखं तओ य चुआ कमेण काहिंति संजया जहा य अंतकिरियं एए अन्ने य एवमाइअत्था वित्थरेण xx आधविज्जंति सम. सू. १४४. ईसिदासे य १ घण्णे त २ सुणक्खत्ते य ३ कातिते ४ । सहाणे ५ सालिभद्दे त ६, आणंदे ७ तेतली ८ तित । दसन्नभद्दे ९ अत्तिमुत्ते. १० एमेते दस आहिया ॥ · अणुत्तरो' इत्यादि, इह च त्रयो वर्गास्तत्र तृतीयवर्गे दृश्यमानाध्ययनैः कैश्चित्सह साम्यमस्ति, न सर्वः । यतस्तत्र तु दृश्यते 'धन्यश्च सुनक्षत्रः ऋषिदासश्वाख्यातः पेल्लको रामपुत्रश्चन्द्रमाः प्रोष्ठक इाते ॥ १ ॥ पेढालपुत्रोऽनगारः पोट्टिलश्च विहल्लः दशम उक्तः, एवमेते आख्याता दश ॥२॥ तदेवामहापि वाचनान्तरापेक्षयाऽध्ययनविभाग उत्तो न पुनरुपलभ्यमानवाचनापेक्षयति । स्था. सू. ७५५. (टीका) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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