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________________ ८२१ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, १. तिविहं, संखेजमसंखेजमणंतमिदि। खेत्त-काल-पमाणाणि पुव्वं व वत्तव्याणि । भाव-पमाणं पंचविहं, मदि-भाव-पमाणं सुद-भाव-पमाणं ओहि-भाव-पमाणं मणपजव-भाव-पमाण केवलभाव-पमाणं चेदि। एत्थेदं जीवहाणं भावदो सुद-भाव-पमाणं। दव्वदो संखेजासंखेजाणंत. सरूव-सद्द-पमाणं । वत्तव्बदा तिविहा, ससमयवत्तव्यदा परसमयवत्तव्यदा तदुभयवत्तव्यदा चेदि । जम्हि सत्थम्हि स-समयो चेव वणिजदि परूविज्जदि पण्णाविञ्जदितं सत्थं ससमयवत्तवं, तस्त भावो ससमयवत्तव्यदा । पर-समयो मिच्छत्तं जम्हि पाहुडे अणियोगे वा वणिजदि परूविजदि पण्णाविजदि तं पाहुडमणियोगो वा परसमयवत्तव्यं, तस्स भावो परसमयवत्तव्वदा णाम । जत्थ दो वि परवेऊग पर-समयो दूसिजदि स-समयो थाविज्जदि सा तदुभयवत्तव्यदा णाम भवदि । एत्थ पुण जीवट्ठाणे ससमयवतव्यदा ससमयस्सेव परूवणादो । अत्याधियारो तिविहो, पमाणं पमेयं तदुभयं चेदि । एत्थ जीवहाणे एक्को चेय अत्थाहियारो पमेय-परूवणादो । उवकमो गदो। _ उनमें, शायकशरीर और भावि नोआगमद्रव्यका वर्णन पहले कर आये। तद्वयतिरिक्तनोआगमद्रव्य प्रमाण संख्यातरूप, असंख्यातरूप और अनन्तरूप भेदकी अपेक्षा तीन प्रकारका है। क्षेत्रप्रमाण और कालप्रमाणका वर्णन पहलेके समान ही करना चाहिये । मतिभावप्रमाण, श्रुतभावप्रमाण, अवधिभावप्रमाण, मनःपर्ययभावप्राण और केवलभावप्रमाणके भेदसे भावप्रमाण पांच प्रकारका है । इनमेंसे यह 'जीवस्थान' नामका शास्त्र भावप्रमाणकी अपेक्षा श्रुतभावप्रमाणरूप है, और द्रव्यकी अपेक्षा संख्यात असंख्यात और अनन्तरूप शब्दप्रमाण है। वक्तव्यता तीन प्रकारकी है, स्वसमयवक्तव्यता, परसमयवक्तव्यता और तदुभयवक्तव्यता । जिस शास्त्र में स्वसमयका ही वर्णन किया जाता है, प्ररूपण किया जाता है अथवा विशेषरूपसे ज्ञान कराया जाता है उसे स्वसमयवक्तव्य कहते हैं, और उसके भावको अर्थात् नवाली विशेषताको स्वसमयवक्तव्यता कहते हैं। परसमय मिथ्यात्वको कहते हैं। उसका जिस प्राभृत या अनुयोगमें वर्णन किया जाता है, प्ररूपण किया जाता है या विशेष शान कराया जाता है उस प्राभृत या अनुयोगको परसमयवक्तव्य कहते हैं, और उसके भावको अर्थात् उसमें होनेवाली विशेषताको परसमयवक्तव्यता कहते हैं। जहां पर स्वसमय और परसमय इन दोनोंका निरूपण करके परसमयको दोषयुक्त दिखलाया जाता है और स्वसमयकी स्थापना की जाती है उसे तदुभयवक्तव्य कहते हैं और उसके भावको अर्थात् उसमें रहलेवाली विशेषताको तदुभयवक्तव्यता कहते हैं। इनमेंसे इस जीवस्थान शास्त्र में स्वसमयवक्तव्यता ही समझनी चाहिये, क्योंकि, इसमें स्वसमयका ही निरूपण किया गया है। __ प्रमाण, प्रमेय और तदुभयके भेदसे अर्थाधिकारके तीन भेद हैं। उनमेंसे इस जीवस्थान शास्त्रमें एक प्रमेय-अर्थाधिकारका ही वर्णन है, क्योंकि, इसमें प्रमाणके विषयभूत प्रमेयका ही वर्णन किया गया है । इसतरह उपक्रमनामका प्रकरण समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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