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________________ १, १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे सुत्तावयरणं [ ८१ एत्थ इदं जीवद्वाणं एदेस पंचसु पमाणेसु कदमं पमाणं ? भावपमाणं । तं पि पंचविहं, तत्थ पंचविहे भाव पमाणेसु सुद-भाव पमाणं । कर्तृनिरूपणया एवास्य प्रामाण्यनिरूपितमिति पुनरस्य प्रामाण्यनिरूपणमनर्थकमिति चेन्न, सामान्येन जिनोक्तत्वान्यथानुपपतितोऽवगतजीवस्थानप्रामाण्यस्य शिष्यस्य बहुषु भावप्रमाणेष्विदं जीवस्थानं श्रुतभावप्रमाणमिति ज्ञापनार्थत्वात् । अहवा पमाणं छव्विहं, नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्र कालभावप्रमाणभेदात् । तत्थ णाम-पमाणं पमाण सण्णा । दुवणा-पमा दुविहं, सम्भाव-दुवणा- पमाणमसन्भाव- दुवणा-पमाणमिदि । आकृतिमति सद्भावस्थापना । अनाकृतिमत्य सद्भावस्थापना । दवमाणं दुविहं आगमदो णोआगमदो य । आगमदो पमाण- पाहुड - जाणओ अणुवजुत्तो, संखेज्जासंखेज्जाणंत भेद - भिण्ण-सदागमो वा । गोआगमो तिविहो, जाणुगसरीरं भवियं तव्चदिरित्तमिदि । जाणुगसरीरं च भवियं च गयं । तव्चदिरित्त दव्व- पमाणं शंका- - उन पांच प्रकारके प्रमाणों में से 'जीवस्थान ' यह कौनसा प्रमाण है ? समाधान - यह भावप्रमाण है । मतिश(नादिरूपसे भावप्रमाणके भी पांच भेद है। इसलिये उन पांच प्रकारके भावप्रमाणों में से इस जीवस्थान शास्त्रको श्रुतभावप्रमा णरूप जानना चाहिये । शंका- पहले कर्ताका निरूपण कर आये हैं इसलिये उसके निरूपण कर देनेसे ही इस शास्त्रकी प्रमाणताका निरूपण हो जाता है, अतः फिरसे उसकी प्रमाणताका निरूपण करना निरर्थक है ? समाधान - ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि, यह जीवस्थान शास्त्र प्रमाण है, अन्यथा वह जिनेन्द्रदेवका कहा हुआ नहीं हो सकता था। इसप्रकार सामान्यरूपसे इस जीवस्थान शास्त्रकी प्रमाणताका निश्चय करनेवाले शिष्यको बहुत प्रकारके भाव प्रमाणोंमेंसे यह जीवस्थान शास्त्र श्रुतभावप्रमाणरूप है, इसतरहसे विशेष ज्ञान करानेके लिये यहां पर इसकी प्रमाणताका निरूपण किया । अथवा, नामप्रमाण, स्थापनाप्रमाण, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाणके भेदसे प्रमाण छह प्रकारका है । उनमें 'प्रमाण' ऐसी संज्ञाको नाम प्रमाण कहते हैं । सद्भावस्थापनाप्रमाण और असद्भावस्थापन (प्रमाणके भेदसे स्थापनाप्रमाण दो प्रकारका है । तदाकारवाले पदार्थोंमें सद्भावस्थापना होती है। और अतदाकारवाले पदार्थोंमें असद्भावस्थापना होती है । आगमद्रव्यप्रमाण और नोआगमद्रव्यप्रमाणके भेदसे द्रव्यप्रमाण दो प्रकारका है । प्रमाणविषयक शास्त्रको जाननेवाले परंतु वर्तमानमें उसके उपयोग से रहित जीवको आगमद्रव्यप्रमाण कहते हैं । अथवा, शब्दों की अपेक्षा संख्यातभेदरूप वक्ताओं की अपेक्षा असंख्यातभेदरूप और तद्वाच्य अर्थकी अपेक्षा अनंतभेदरूप ऐसे शब्दरूप आगमको आगमद्रव्यप्रमाण कहते हैं । ज्ञायकशरीर, भावि और तद्वयतिरिक्त भेदसे नोआगमद्रव्यके तीन भेद समझने चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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