SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, १, १. ] संत-परूत्रणाणुयोगद्दारे सुत्तावयरणं [ ७९ निबन्धनयमसिंहाग्निरावणादीनि नामानि तेषां नामपदेऽन्तर्भावात् । न चैतेभ्यो व्यतिरिक्तं नामास्त्यनुपलम्भात् । तत्थेदस्स जीवद्वाणस्स णामं किं पदं ? जीवाणं द्वाण-वण्णणादो जीवद्वाणमिदि गोणपदं । मंगलादिसु छसु अहियारेसु वक्खाणिजमाणेसु णामं वुत्तमेव । पुणो किम स्वभावकी सदृशता कारण है ऐसी यम, सिंह, अग्नि और रावण आदि संज्ञायं भावसंयोगपदरूप नहीं हो सकती हैं, क्योंकि, उनका नामपदमें अन्तर्भाव होता है । उक्त दश प्रकारके नामों से भिन्न और कोई नामपद नहीं है, क्योंकि, व्यवहार में इनके अतिरिक्त अन्य नाम नहीं पाये जाते हैं । विशेषार्थ - यतिवृषभाचार्यने कषायप्राभृतमें नामके केवल छह भेद बताये हैं । वे ये हैं, गौण्यपद, नोगोण्यपद, आदानपद, प्रतिपक्षपद, अपचयपद और उपचयपद । ऊपर जो नामके दश भेद कह आये हैं। उनमेंसे, यहां पर अनादिसिद्धान्तसंबन्धी गुणसापेक्ष नामोंका गौण्यपद और आदानपदमें तथा गुणनिरपेक्ष नामोंका नोगौण्यपदमें अन्तर्भाव क्रिया है । प्राधान्यपदनामों का गौण्यपद और आदानपद में अन्तर्भाव किया है । प्रमाणपदनामों का गौण्यपदमें नामपदनामोंका नोगौण्यपदमें और संयोग पदनामोंका आदानपदमें अन्तर्भाव किया है । अवयवपदनामोंका उपचितपदनाम और अपचितपदनामोंमें अन्तर्भाव हो ही जाता है। शंका- - उन पूर्वोक्त दश प्रकारके नामपदों में यह जीवस्थान कौनसा नामपद है ? समाधान जीवोंके स्थानोंका वर्णन करनेसे 'जीवस्थान ' यह गौण्य नामपद है। शंका – पहले मंगलादिक छह अधिकारोंका व्याख्यान करते समय नामपदका १ णामं छव्विहं ॥ ३ ॥ ( कसायपाहुड चुणिसुतं ) गोण्णपदे णोगोण्णपदे आदाणपदे पडिवक्खपदे अवचयपदे उवचयपदे चेदि । xxx पाधण्णपदणामाणं कथं तव्भावो ? बलाहकाए च बहुसु वण्णेसु संतेसु धवला बलाहका लोकाओ त्ति जो णामणिद्देसो सो गोण्णपदे णिवददि गुणमुहेण दव्वम्मि पउत्तिदंसणादो | कयंबणिबादिअणेगेसु रुक्खेसु तत्थ संतेसु जो एगेण रुक्खेण णिंबवणमिदि णिद्देसो सो आदाणपदे णिवददि वणेणाचरुक्खसंबंधेणेदस्स पउत्तिदंसणादो | दव्वखेत्तकालभावसंजोयपदाणि रायासिधणुहरसुरलोकणयरभारहय अइरावयसायर वासंतयकोहीमाणी इचाईणि णामाणि वि आदाणपदे चैव णिवदंति इदमेदस्स अस्थि एत्थ वा इदमत्थि त्ति विवक्खाए एदेसिं णामाणं पवृत्तिदंसणादो | अवयवपदणामाणि अवचयउवचयपदणामेसु पविसंति, तेहिंतो तस्स भेदाभावादो । सुअणासा कंबुग्गीवा कमलदलणयणा चंदमुही बिंबोट्ठी इच्चाईणि तत्तो बाहिराणि अत्थि चि चे दाणि णामाणि समासंतभूददवसद्दत्थसंबंधेण दव्वम्मि पउत्तदो । अणादिय सिद्धंतपदणामेसु जाणि अणादिगुणसंबंधमवेक्खिय पयहाणि जीवो णाणी चेयणावतो ति ताणि गोण्णपदे आदाणपदे च णिवदंति । जाणि गोगोण्णपदाणि ताणि गोगोण्णपदणामेसु णिवदति । पमाणपदणामीण व गोण्णपदे चैव णिवदति समाणस्स दव्वगुणत्तादो अरविंदसंधस्स अरविंदसण्णा णामपदा । सा च अणादिसिद्धं तपदणामेसु पविट्ठा अणादिसरूवेण तस्स तत्थ पउत्तिदंसणादो । अणादिय सिद्धं तपदणामाणं धम्मकालागासजीवपुग्गलादीणं छप्पदंतव्भावो पुव्वं परूविदो त्ति दाणिं परूविज्जदे । तदो णामं दसविहं चैव होदि त्ति एयंतही वतव्वो, किंतु छव्विहं पि होदि चि घेत्तव्वं । जयध. अ. पृ. ४-५. Jain Education International For Private & Personal Use Only ies www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy