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७०] छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[१, १, १. इदि वयणादो जहाछंदाईणं विज्जा-दाणं संसार-भय-वद्धणमिदि चिंतिऊण सुहसुमिण-दंसणेणेव अवगय-पुरिसंतरेण धरसेण-भयवदा पुणरवि ताणं परिक्खा काउमाढत्ता 'सुपरिक्खा हियय-णिव्वुइकरेति ' । तदो ताणं तेण दो विज्जाओ दिण्णाओं। तत्थ एया अहिय-खरा, अवरा विहीण-क्खरा । एदाओ छट्टोववासेण साहेहु त्ति । तदो ते सिद्धविज्जा विज्जा-देवदाओ पेच्छंति, एया उदंतुरिया अवरेया काणिया । एसो देवदाणं सहावो ण होदि त्ति चिंतिऊण मंत-व्यायरण-सत्थ-कुसलेहिं हीणाहिय-खराणं छुहणावणयण-विहाणं काऊण पढ़तेहि दो वि देवदाओ सहाव-रूव-ट्ठियाओ दिट्ठाओ। पुणो तेहि धरसेण-भयवंतस्स जहावित्तेण विणएण णिवेदिदे सुट्ठ तुटेण धरसेण-भडारएण सोम-तिहिणक्खत्त-वारे गंथो पारद्धो । पुणो कमेण वक्खाणंतेण आसाढ-मास-सुक्क-पक्ख-एकारसीए पुन्यण्हे गंथो समाणिदो । विणएण गंथो समाणिदो त्ति तुढेहि भूदेहि तत्थेयस्स महदी
___ इस वचनके अनुसार यथाछन्द अर्थात् स्वच्छन्दतापूर्वक आचरण करनेवाले श्रोता. ओंको विद्या देना संसार और भयका ही बढ़ानेवाला है, ऐसा विचारकर, शुभ स्वप्नके देखने मात्रसे ही यद्यपि धरसेन भट्टारकने उन आये हुए दोनों साधुओंके अन्तर अर्थात् विशेषताको जान लिया था, तो भी फिरसे उनकी परीक्षा लेनेका निश्चय किया, क्योंकि, उत्तम प्रकारसे ली गई परीक्षा हृदय में संतोषको उत्पन्न करती है। इसके बाद धरसेनाचार्यने उन दोनों साधुओंको दो विद्याएं दी। उनमेंसे एक अधिक अक्षरवाली थी और दूसरी हीन अक्षरवाली थी। दोनोंको दो विद्याएं देकर कहा कि इनको षष्ठभक्त उपवास अर्थात् दो दिनके उपवाससे सिद्ध करो । इसके बाद जब उनको विद्याएं सिद्ध हुई, तो उन्होंने विद्याकी अधिष्ठात्री देवताओंको देखा कि एक देवीके दांत बाहर निकले हुए हैं और दूसरी कानी है। 'विकृतांग होना देवताओंका स्वभाव नहीं होता है' इसप्रकार उन दोनोंने विचारकर मन्त्र-संबन्धी व्याकरण-शास्त्रमें कुशल उन दोनोंने हीन अक्षरवाली विद्यामें अधिक अक्षर मिलाकर और अधिक अक्षरवाली विद्यामेंसे अक्षर निकालकर मन्त्रको पढ़ना, अर्थात् फिरसे सिद्ध करना प्रारम्भ किया। जिससे वे दोनों विद्यादेवताएं अपने स्वभाव और अपने सुन्दर रूपमें स्थित दिखलाई पड़ीं । तदनन्तर भगवान् धरसेनके समक्ष, योग्य विनय-सहित उन दोनोंके विद्या-सिद्धिसंबन्धी समस्त वृत्तान्तके निवेदन करने पर बहुत अच्छा ' इसप्रकार संतुष्ट हुए धरसेन भट्टारकने शुभ तिथि, शुभनक्षत्र और शुभवारमें ग्रन्थका पढ़ाना प्रारम्भ किया। इसतरह क्रमसे व्याख्यान करते हुए धरसेन भगवानसे उन दोनोंने आषाढ़ मासके शुक्लपक्षकी एकादशीके पूर्वाह्नकालमें ग्रन्थ समाप्त किया । विनयपूर्वक ग्रन्थ समाप्त किया, इसलिये संतुष्ट हुए भूत जातिके ब्यन्तर देवोंने
१ सुपरीक्षा हृनिर्वृतिकरीति समित्य दत्तवान् सरिः । साधयितुं विद्ये द्वे होनाधिकवर्णसंयुक्ते ॥
इन्द्र. भुता. ११५०
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