SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं विशेषार्थ - शैलनाम पाषाणका है और घन नाम मेघका है। जिसप्रकार पाषाण, her farareas वर्षा करने पर भी आर्द्र या मृदु नहीं होता है, उसीप्रकार कुछ ऐसे भी श्रोता होते हैं, जिन्हें गुरुजन चिरकाल तक भी धर्मामृतके वर्षण या सिंचन द्वारा कोमलपरिणामी नहीं बना सकते हैं ऐसे श्रोताओंको शैलघन श्रोता कहा है ॥ १ ॥ भग्नघट फूटे घड़ेको कहते हैं । जिसप्रकार फूटे घड़े में ऊपरसे भरा गया जल नीचेकी ओरसे निकल जाता है भीतर कुछ भी नहीं ठहरता इसीप्रकार जो उपदेशको एक कानसे सुनकर दूसरे कानसे निकाल देते हैं उन्हें भग्नघट श्रोता कहा है ॥ २ ॥ अहि नाम सांपका है। जिसप्रकार मिश्री - मिश्रित- दुग्धके पान करने पर भी सर्प विषका ही वमन करता है, उसीप्रकार जो सुन्दर, मधुर और हितकर उपदेशके सुनने पर भी विष वमन करते हैं अर्थात् प्रतिकूल आचरण करते हैं, उन्हें अहिसमान श्रोता समझना चाहिये ॥ ३ ॥ चालनी जैसे उत्तम आटेको नीचे गिरा देती है और भूसा या चोकरको अपने भीतर रख लेती है, इसीप्रकार जो उत्तम सारयुक्त उपदेशको तो बाहर निकाल देते हैं और निःसार तत्वको धारण करते हैं वे चालनीसमान श्रोता हैं ॥ ४ ॥ महिषा अर्थात् भैंसा जिसप्रकार जलाशय से जल तो कम पीता है परंतु बारबार दुबकी लगाकर उसे गंदला कर देता है, उसीप्रकार जो श्रोता सभा में उपदेश तो अल्प ग्रहण करते हैं। पर प्रसंग पाकर क्षोभ या उद्वेग उत्पन्न कर देते हैं वे महिषासमान श्रोता हैं ॥ ५ ॥ अवि नाम मेष (मेंढा ) का है । जैसे मेंढा पालनेवालेको ही मारता है, उसीप्रकार जो उपदेशदाता की ही निन्दा करते हैं और समय आनेपर घात तक करने को उद्यत रहते हैं उन्हें अविके समान श्रोता समझना चाहिए ॥ ६ ॥ जाहक नाम सेही आदि अनेक जीवोंका है पर प्रकृतमें जोंक अर्थ ग्रहण किया गया है । जैसे जोकको स्तनपर भी लगायें तो भी वह दूध न पीकर खून ही पीती है, इसीप्रकार जो उत्तम आचार्य या गुरुके समीप रहकर भी उत्तम तत्वको तो ग्रहण नहीं करते, पर अधम तत्वको ही ग्रहण करते हैं वे जोंकके समान श्रोता हैं ॥ ७ ॥ शुक नाम तोका है। तोतेको जो कुछ सिखाया जाता है वह सीख तो जाता है पर उसे यथार्थ अर्थ प्रतिभासित नहीं होता, उसीप्रकार उपदेश स्मरणकर लेने पर भी जिनके हृदयमें भाव भासना नहीं होती है वे शुकसमान श्रोता हैं ॥ ८ ॥ मट्टी जैसे जलके संयोग मिलने पर तो कोमल हो जाती है पर जलके अभावमें पुनः कठोर हो जाती है, इसीप्रकार जो उपदेश मिलने तक तो मृदु-परिणामी बने रहते हैं और बादमें पूर्ववत् ही कठोर हृदय हो जाते हैं वे मट्टीके समान श्रोता है ॥ ९ ॥ मशक अर्थात् मच्छर पहले कानोंमें आकर गुन. गुनाता है चरणों में गिरता है किंतु अवसर पाते ही काट खाता है, उसीप्रकार जो श्रोता पहले तो गुरु या उपदेश-दाताकी प्रशंसा करेंगे, चरण-वन्दना भी करेंगे, पर अवसर आते ही काटे बिना न रहेंगे उन्हें मशकके समान श्रोता समझना चाहिये ॥ १० ॥ उक्त सभी प्रकार के श्रोता अयोग्य हैं, उन्हें उपदेश देना व्यर्थ है । Jain Education International [ ६९ किसी किसी शास्त्रमें उक्त नामोंमें तथा अर्थमें भेद भी देखने में आता है, किंतु कुश्रोताका भाव यहां पर अभीष्ट है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy