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________________ १, १, १. ] संत - परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं [ ६७ सेसंग - पुव्वाणभेग - देस-धारया' । तदो सव्वेसि मंग-पुव्वाणमेग देसो आइरिय-परंपराए आगच्छमाणो धरसेणाइरियं संपत्तो । ते विसोर- विसय - गिरिणयर-पट्टण-चंदगुहा-ठिएण' अहंग-महाणिमित्त-पारएण गंथ-चोच्छेदो होहदि त्ति जाद भएग पवयण - वच्छलेण दक्खिणावहाइरियाणं महिमा मिलियाणं लेहो पेसिदो" । लेह-ट्ठिय-धरसेण वयणमवधारय तेहि वि आइरह साहू ग्रहण-धारण-समत्था धवलामल - बहु-विह-विषय-विहूसियंगा सील-माला-हरा गुरुपेसणासण- तित्ता देस-कुल- जाइ - सुद्धा सयल - कला -पारया तिक्खुत्ताबुच्छियाइरिया अंधविसय- वेण्णायादो पेसिदा । तेसु आगच्छमाणेसु रयणीए पच्छिमे भाए कुंदेंदु संख शेष अंग तथा पूर्वोके एकदेशके धारक हुए। इसके बाद सभी अंग और पूर्वोका एकदेश आचार्यपरंपरासे आता हुआ धरसेन आचार्यको प्राप्त हुआ । सौराष्ट्र (गुजरात-काठियावाड़ ) देशके गिरिनगर नामके नगरकी चन्द्रगुफा में रहनेवाले, अष्टांग महानिमित्तके पारगामी, प्रवचन-वत्सल और आगे अंग श्रुतका विच्छेद हो जायगा इसप्रकार उत्पन्न हो गया है भय जिनको ऐसे उन धरसेनाचार्यने किसी धर्मोत्सव आदि निमित्तसे महिमा नामकी नगरी में संमिलित हुए दक्षिणापथ के ( दक्षिणदेश के निवासी ) आचार्यों के पास एक लेख भेजा । लेखमें लिखे गये धरसेनाचार्यके वचनोंको भलीभांति समझकर उन आचार्योंने शास्त्र के अर्थके ग्रहण और धारण करनेमें समर्थ, नानाप्रकारकी उज्वल और निर्मल विनयसे विभूषित अंगवाले, शीलरूपी माला के धारक, गुरुओं द्वारा प्रेषण ( भेजने ) रूपी भोजन से तृप्त हुए, देश, कुल और जातिसे शुद्ध, अर्थात् उत्तम देश उत्तम कुल और उत्तम जातिमें उत्पन्न हुए, समस्त कलाओं में पारंगत और तीन बार पूंछा है आचार्योंसे जिन्होंने, ( अर्थात् आचार्योंसे तीन बार आज्ञा लेकर ) ऐसे दो साधुओंको आन्ध्र-देशमें बहनेवाली वेणानदी के तट से भेजा । मार्ग में उन दोनों साधुओं के आते समय, जो कुन्दके पुष्प, चन्द्रमा और शंखके समान १ एसि सव्वेसिं कालाणं समासो उसदवासाणि तेसीदिवाससमहियाणि ६८३ वट्टमाणजिशिंदे शिवा गदे । जयध. अ. पु. ११. २ देशे ततः सुरान्द्रे गिरिनगर पुरान्तिकोर्जयन्त गिरौ । चंद्रगुहाविनिवासी महातपाः परममुनिमुख्यः ॥ अप्रायणीय पूर्वस्थितपंचमत्रस्तुगतचतुर्थमहाकर्मप्राभृतकः सूरिरसेननामाभूत् ॥ इन्द्र. श्रुता. १०३, १०४. ३ प्रतिपु 'बंधवो ' इति पाठः । ४ देशेन्द्रदेशनामनि वेणाकतटीपुरे महामहिमा - समुदितमुनीन् प्रति ब्रह्मचारिणा प्रापयल्लेखम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only इन्द्र. श्रुता. १०६. www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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