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________________ ................................. १, १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं [५१ .. णमो लोए सव्य साहूणं' अनन्तज्ञानादिशुद्धात्मस्वरूपं साधयन्तीति साधवः । पञ्चमहाव्रतधरास्त्रिगुप्तिगुप्ताः अष्टादशशीलसहस्रधराश्चतुरशीतिशतसहस्रगुणधराश्च साधवः । सीह-गय-वसह-मिय-पसु-मारुद-सूरुवहि-मंदरिंदु-मणी । खिदि-उरगंबर-सरिसा परम-पय-विमग्गया साहू ॥ ३३ ॥ सकलकर्मभूमीपूत्पन्नेभ्यस्त्रिकालगोचरेभ्यः साधुभ्यो नमः णमो लोए सव्वसाहणं ' लोक अर्थात् ढाई द्वीपवर्ती सर्व साधुओंको नमस्कार हो । जो अनन्त ज्ञानादिरूप शुद्ध आत्माके स्वरूपकी साधना करते हैं उन्हें साधु कहते हैं। जो पांच महाव्रतोंको धारण करते हैं, तीन गुप्तियोंसे सुरक्षित हैं, अठारह हजार शीलके भेदोंको धारण करते हैं और चौरासी लाख उत्तर गुणों का पालन करते हैं, वे साधु परमेष्ठी होते हैं। सिंहके समान पराक्रमी, गजके समान स्वाभिमानी या उन्नत, बैलके समान भद्रप्रकृति, मृगके समान सरल, पशुके समान निरीह गोचरी-वृत्ति करनेवाले, पवनके समान निःसंग या सब जगह बिना रुकावटके विचरनेवाले, सूर्यके समान तेजस्वी या सकल तत्वों के प्रकाशक, उदधि अर्थात् सागरके समान गम्भीर, मन्दराचल अर्थात् सुमेरु-पर्वतके समान परीषह और उपसर्गोंके आने पर अकम्प और अडोल रहनेवाले, चन्द्रमाके समान शान्तिदायक, मणिके समान प्रभा-पुंजयुक्त, क्षितिके समान सर्व प्रकारकी बाधाओंको सहनेवाले, उरग अर्थात सर्पके समान दूसरेके बनाये हुए अनियत आश्रय-वसतिका आदिमें निवास करनेवाले, अम्बर अर्थात आकाशके समान निरालम्बी या निर्लेप और सदाकाल परमपद अर्थात् मोक्षका अन्वेषण करनेवाले साधु होते हैं ॥ ३३ ॥ संपूर्ण कर्मभूमियोंमें उत्पन्न हुए त्रिकालवर्ती साधुओंको नमस्कार हो । १ गगणतलं व णिरालंबणा, वाउरिव अपडिबंधा, सारदसलिल इव सुद्धहियया, पुक्खरपत्त इव निरुवलेवा, कम्मो इव गुतिंदिया, विहग इव विप्पमुक्का, खग्गिविसाणं व एगजाया, भारंडपक्खी व अप्पमत्ता, कुंजरो इव सोंडीरा, वसभी इव जातत्थिमा, सीहो इव दुद्धरिसा, मंदरा इव अप्पकंपा, सागरो इव गंभीरा, चंदो इव सोमलेसा, सूरो इव दित्तत्तेया, जच्चकंचणगं च इव जातरूवा, वसुंधरा इव सव्वफासविसया, सुहुयहुयासणो तेयसा जलंता अणगारा । सूत्र. २, २. ७०. उरगगिरिजलणसागरनहतलतरुगणसमो अ जो होई । भमरमियधरणिजलरुहरविपवणसमो अ तो समणो ॥ अनु. पृ. २५६. २ णिव्वाणसाधए जोगे सदा जुंजंति साधवो | समा सव्वेस भूदसु तम्हा ते सव्वसाधवो ॥ मूलाचा. ५१२. आ. नि. १००५. साधयन्ति ज्ञानादिशक्तिभिर्मोक्षमिति साधवः । समतां वा सर्वभूतेषु ध्यायन्तीति निरुक्तिन्यायात साधवः । यदाह, णिव्वाणसाहए जोए जम्हा साहेति साहुणो । समा य सब्वभूएसु तम्हा ते भावसाहुणो ॥ साहायकं वा संयमकारिणां धारयन्तीति साधवः । सर्वग्रहणं च सर्वेषां गुणवतामविशेषनमनीयताप्रतिपादनार्थम् । अथवा, सर्वेभ्यो जीवेभ्यो हिताः सार्वाः, ते च ते साधवश्च सार्वसाधवः । सार्वस्य वा अर्हतो न तु बुद्धादेः साधवः सार्वसाधवः । सर्वान् वा शुभयोगान् साधयन्ति कुर्वन्ति, सार्वान् वा अर्हतः साधयन्ति तदाज्ञाकरणादाराधयन्ति प्रतिष्ठापयन्ति वा • दुर्नयनिराकारणादिति सर्वसाधवः सार्वसाधवो वा । अथवा श्रव्येषु श्रवणाहेषु वाक्येषु अथवा सव्यानि दक्षिणान्यनु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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