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________________ ३६ ] इत्यत्राभेदेऽपि सप्तम्युपलम्भतोऽनेकान्तात् । एकजीवापेक्षया कथमनाद्य कियच्चिरं मङ्गलम् ? नानाजीवापेक्षया सर्वोद्यम् । अनाद्यपर्यवसितं साद्यपर्यवसितं सादिसपर्यवसितमिति त्रिविधम् । पर्यवसितता मङ्गलस्य ? द्रव्यार्थिकनयार्पणया । तथा च मिथ्यादृष्टयवस्थायामपि मङ्गलत्वं जीवस्य प्राप्नोतीति चेन्नैष दोषः इष्टत्वात् । न मिथ्याविरतिप्रमादानां मङ्गलत्वं तेषां जीवत्वाभावात् । जीवो हि मङ्गलम् स च केवलज्ञानाद्यनन्तधर्मात्मकः । नावृतावस्थायां मङ्गली भूतकेवलज्ञानाद्यभावः आत्रियमाणकेवलाद्यभावे तदावरणानुपपत्तेः, जीवलक्षणयोर्ज्ञानदर्शनयोरभावे लक्ष्यस्याप्यभावापत्तेश्च । न चैवं तथाऽनुपलम्भात् छक्खंडागमे जीवाणं उपलब्धि होती है, उसी प्रकार 'जीवे मंगलम्' यहां पर भी अभेदमें सप्तमी विभक्ति समझना चाहिये । इसतरह यह सिद्ध हुआ कि अधिकरण कारकके प्रयोगमें भी अनेकान्त है। अर्थात् कहीं भेदमें भी अधिकरण कारक होता है और कहीं अभेद में भी अधिकरण कारक होता है ! कबतक मंगल रहता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वदा मंगल रहता है और एक जीवकी अपेक्षा अनादि-अनन्त, सादि-अनन्त, और सादि- सान्त इसप्रकार मंगलके तीन भेद हो. जाते हैं। शंका - मंगलमें एक जीवकी अपेक्षा अनादि-अनन्तपना कैसे बनता है, अर्थात् एक जीवके अनादि कालसे अनन्तकाल तक मंगल होता है यह कैसे संभव है ? जायगी ? [ १,१, १०. समाधान- द्रव्यार्थिक नयकी प्रधानतासे मंगलमें अनादि अनंतपना बन जाता है । अर्थात् द्रव्यार्थिक नयकी मुख्यतासे जीव अनादिकालसे अनन्तकाल तक सर्वदा एक स्वभाव अवस्थित है और मंगलरूप पर्याय उससे सर्वथा भिन्न नहीं है । अतएव मंगलमें भी अनादिअनन्तपना बन जाता है । शंका- इसतरह तो मिध्यादृष्टि अवस्थामें भी जीवको मंगलपनेकी प्राप्ति हो समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, ऐसा प्रसंग तो हमें इष्ट ही है। किंतु ऐसा मान लेने पर भी मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद आदि को मंगलपना सिद्ध नहीं हो सकता है, क्योंकि, उनमें जीवत्व नहीं पाया जाता है। मंगल तो जीव ही है, और वह जीव केवलज्ञानादि अनन्त-धर्मात्मक है । Jain Education International आवृत अवस्थामै अर्थात् केवलज्ञानावरण आदि कर्मबन्धनकी दशामें मंगलीभूत केवलज्ञानादिका अभाव है, अर्थात् उस अवस्थामें वे सर्वथा नहीं पाये जाते । यदि कोई ऐसा प्रश्न करे, तो, आत्रियमाण अर्थात् जो कर्मोंके द्वारा आवृत होते हैं ऐसे केवलज्ञानादिके अभावमें केवलज्ञानादिको आवरण करनेवाले कर्मो का सद्भाव सिद्ध नहीं हो सकेगा । दूसरे, जीवके लक्षणरूप ज्ञान और दर्शनके अभाव मानने पर लक्ष्यरूप जीवके अभावकी भी आपत्ति .. आ जाती है । लेकिन ऐसा नहीं है, क्योंकि, प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे जीवकी उपलब्धि नहीं होती For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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