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________________ [ ३५ १, १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं त्वाभ्युपगमात् । कस्य मङ्गलम् ? द्रव्यार्थिकनयार्पणया नित्यतामादधानस्य पर्यायार्थिकनयार्पणयोत्पादविगमात्मकस्य । देवदत्तात्कम्बलस्येव न जीवान्मङ्गलपर्यायस्य भेदः सुवर्णस्याहुलीयकमित्त्यत्राभेदेऽपि षष्ठथुपलम्भतोऽनेकान्तात् । * केन मङ्गलम् ? औदयिकादिभावैः। क्क मङ्गलम् ? जीवे । कुण्डागदराणामिव न जीवान्मङ्गलपर्यायस्य भेदः सारे स्तम्भ मंगल किसके होता है ? द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा नित्यताको धारण करनेवाले अर्थात् सदाकाल एक स्वरूप रहनेवाले और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा उत्पाद और व्ययस्वरूप जायके मंगल होता है। यहां पर जिसप्रकार (कम्बल देवदत्तका होते हुए भी) देवदत्तसे कम्बलका भेद है, उसप्रकार जीवका मंगलरूप पर्यायसे भेद नहीं है। क्योंकि, 'यह अंगूठी स्वर्णकी है। यहां पर अभेदमें, अर्थात् अंगूठीरूप पर्याय स्वर्णसे अभिन्न होने पर भी जिसप्रकार भेदद्योतक षष्ठी विभक्ति देखी जाती है, उसी प्रकार 'जीवस्य मंगलम्' यहां पर भी अभेदमें षष्ठी विभक्ति समझना चाहिये। इसतरह संबन्धकारकमें अनेकान्त समझना चाहिये। अर्थात् कहीं पर दो पदार्थों में भेद होने पर भी संबन्धकी विवक्षासे षष्ठी कारक होता है और कहीं पर अभेद होने पर भी षष्ठी कारकका प्रयोग होता है। किस कारणसे मंगल उत्पन्न होता है? जीवके औदयिक, औपशमिक आदि भावोंसे मंगल उत्पन्न होता है। विशेषार्थ-यद्यापि कमौके उपशम, क्षय और क्षयोपशमसे सम्यग्दर्शनादिकी उत्पत्ति होती है, इसलिये उनसे मंगल की उत्पत्ति मानना तो ठीक है। परंतु औदयिक भावसे मंगलकी उत्पत्ति नहीं बन सकती है, इसलिये यहां पर 'औदयिक आदि भावोंसे मंगल उत्पन्न होता है यह कहना किलप्रकार संभव है? इसका समाधान इसप्रकार समझना चाहिये कि यद्यपि सभी औदायिक भाव मंगलकी उत्पत्तिमें कारण नहीं हैं, फिर भी तीर्थकर प्रकृतिक उदयसे उत्पन्न होनेवाला औदायिक भाव मंगलका कारण है। इसलिये उसकी अपेक्षासे औदयिक भावको भी मंगलकी उत्पत्ति के कारणों में ग्रहण किया है। मंगल किसमें उत्पन्न होता है ? जीवमें मंगल उत्पन्न होता है। जिसप्रकार कूडेसे उसमें रक्खे हुए बेरोंका भेद है, उसप्रकार जीवसे मंगलपर्यायका भेद नहीं समझना चाहिये, क्योंकि 'सारे स्तंभः' अर्थात् वृक्ष के सारमें स्तम है। यहां पर जिसतरह अभेदमें भी सप्तमी विभक्तिकी स. सू. १, ७. तत्र किमित्यनुयोगे वस्तुस्वरूपकथनं निर्देशः। कस्येत्यनुयोगे स्वस्येत्याधिपत्यकथनं स्वामित्वम् । केनति प्रश्ने करणनिरूपण साधनम् । कस्मिानित्यनुयोगे आधारप्रतिपादनमधिकरणम् । कियच्चिरमिति प्रश्ने कालप्ररूपणं स्थिति : । कतिविध इत्यनुयोगे प्रकारकथन विधानम् । लघीय. पृ. ९५. प्रतिषु ' सारस्थस्तम्मः' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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