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१, १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं
[३३ णामो भावमलम् ।
___ अथवा अर्थाभिधानप्रत्ययभेदात्रिविधं मलम् । उक्तमर्थमलम् । अभिधानमलं तद्वाचकः शब्दः । तयोरुत्पन्नबुद्धिः प्रत्ययमलम् । अथवा चतुर्विधं मलं नामस्थापनाद्रव्यभावमलभेदात् । अनेकविधं वा। तन्मलं गालयति विनाशयति विध्वंसयतीति मङ्गलम् । अथवा मङ्गं सुखं तल्लाति आदत्त इति वा मङ्गलम् । उक्तं च
मङ्गशब्दोऽयमुद्दिष्टः पुण्यार्थस्याभिधायकः । तल्लातीत्युच्यते सद्भिर्मङ्गलं मङ्गलार्थिभिः ॥ १६ ॥
भेदोंमें विभक्त ऐसे ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्म आभ्यन्तर द्रव्यमल हैं। अचान और अदर्शन आदि परिणामोंको भावमल कहते हैं।
अथवा, अर्थ, अभिधान (शब्द) और प्रत्यय (ज्ञान) के भेदसे मल तीन प्रकारका होता है। अर्थमलको तो अभी पहले कह आये हैं, अर्थात् जो पहले बाह्य द्रव्यमल, आभ्यन्तर द्रव्यमल और भावमल कहा गया है उसे ही अर्थमल समझना चाहिये । मलके वाचक शब्दोंको अभिधान मल कहते हैं। तथा अर्थमल और अभिधानमलमें उत्पन्न हुई बुद्धिको प्रत्ययमल कहते हैं।
अथवा, नाममल, स्थापनामल, द्रव्यमल और भावमलके भेदसे मल चार प्रकारका है। अथवा, इसीप्रकार विवक्षाभेदसे मल अनेक प्रकारका भी है । इसप्रकार ऊपर कहे गये मलका जो गालन करे. विनाश करे व ध्वंस करे उसे मंगल कहते हैं
अथवा, मंग शब्द सुखवाची है उसे जो लावे, प्राप्त करे उसे मंगल कहते हैं। कहा भी है
यह मंग शब्द पुण्यरूप अर्थका प्रतिपादन करनेवाला माना गया है। उस पुण्यको जो लाता है उसे मंगलके इच्छुक सत्पुरुष मंगल कहते हैं ॥ १६ ॥
णाणावरणप्पहुदी अट्ठविहं कम्ममखिलपावरयं । अब्भतरदव्यमलं जीवपदेसे णिबद्धमिदि हेदो। ति. प. १, ११-१२.
१ भावमलं णादव्वं अण्णाणादसणादिपरिणामो ।। ति. प. १, १३. २ अहवा बहुमेयगयं णाणावरणादि दव्वभावमलभेदा । ति. प. १, १४. ३ ताई गालेदि पुटं जदो तदो मंगलं भणिदं । ति. प. १, १४. ४ अहवा मंगं सोक्खं लादि हु गेण्हेदि मंगलं तम्हा । एदाण कज्जसिद्धि मंगलगत्त्थेदि गंधकत्तारो॥
ति. प. १, १४, १५. . ५ पुव्वं आइरिएहिं मंगलपुध्वं च वाचिदं भणिदं । तं लादि हु आदते जदो तदो मंगलप्पवरं ॥
.. ति.प. १, १६.
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