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________________ ३२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, १. सौख्यमित्येवमादीनि मङ्गलपर्यायवचनानि । एकार्थप्ररूपणं किमिति चेत् , यतो सङ्गलार्थोऽनेकशब्दाभिधेयस्ततोऽनेकेषु शास्त्रेषु नैकाभिधानैः मङ्गलार्थः प्रयुक्तश्चिरंतनाचायः । सोऽव्यामोहेन शिष्यैः सुखेनावगम्यत इत्येकार्थ उच्यते ' यद्यकशब्देन न जानाति ततोऽज्येनापि शब्देन ज्ञापयितव्यः' इति वचनाद्वा । ..... मङ्गलस्य निरुक्तिरुच्यते, मलं गालयति विनाशयति दहति हन्ति विशोधयति विध्वंसयतीति मङ्गलम् । तन्मलं द्विविधं द्रव्यभावमलभेदात् । द्रव्यमलं द्विविधम् , बाह्यमाभ्यतरं च । तत्र स्वेदरजोमलादि बाह्यम् । घन-कठिन-जीव-प्रदेश-निबद्ध-प्रकृति-स्थित्यनुभाग-प्रदेश-विभक्त-ज्ञानावरणाद्यष्टविध-कर्माभ्यन्तर-द्रव्यमलम् । अज्ञानादर्शनादिपरि शुभ, कल्याण, भद्र और सौख्य इत्यादि मंगलके पर्यायवाची नाम हैं। शंका- यहां पर मंगलके एकार्थ-वाचक अनेक नामोंका प्ररूपण किसलिये किया गया है? समाधान--- क्योंकि, मंगलरूप अर्थ अनेक-शब्द-वाच्य है, अर्थात् अनेक पर्यायवाची नामोंके द्वारा मंगलरूप अर्थका प्रतिपादन किया जाता है, इसलिये प्राचीन आचार्योंने अनेक शास्त्रों में अनेक अर्थात् भिन्न भिन्न शब्दोंके द्वारा मंगलरूप अर्थका प्रयोग किया है। इससे मतिभ्रमके विना शिष्योंको मंगलके पर्याय-वाची उन सब नामोका सरलतापूर्वक ज्ञान हो जावे, इसलिये यहां पर मंगलके एकार्थ-वाची नाम कहे हैं। ___ अथवा, 'यदि शिष्य एक शब्द से प्रकृत विषयको नहीं समझ पावे, तो दूसरे शब्दोंके द्वारा उसे ज्ञान करा देना चाहिये' इस वचनके अनुसार भी यहांपर मंगलरूप अर्थके पर्यायवाची अनेक नाम कहे गये हैं। अब मंगलकी निरुक्ति (व्युत्पत्ति-जन्य अर्थ) कहते हैं। जो मलका गालन करे, विनाश करे, घात करे, दहन करे, नाश करे, शोधन करे, विध्वंस करे, उसे मंगल कहते हैं। द्रव्यमल और भावमलके भेदसे वह मल दो प्रकारका है। द्रव्यमल भी दो प्रकारका है, बाह्यद्रव्यमल और आभ्यन्तर-द्रव्यमल। इनमेंसे, पसीना, धूलि और मल आदि बाह्य द्रव्यमल हैं। सान्द्र और कठिनरूपसे जीवके प्रदेशोंसे बंधे हुए, प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, और प्रदेश इन १ पुण्णं पृदपविता पसत्यसिवभदखेमकल्लाणा। सुहसोक्खादी सव्वे णिविट्ठा मंगलस्स पन्जाया ॥ ति.प.१, ८. २ गालयदि विणासयदे घादोदि दहेदि हंति सोधयदे । विद्धंसेदि मलाई जम्हा तम्हा य मंगलं भणिदं ।। ति.प. १,९. .. ३ दोणि वियप्पा हांति हु मलस्स इमं दवभावभेएहिं । ति. प. १, १.. ४ दवमलं दुविहप्पं बाहिरमभंतरं चेय । सेदमलरेणुकद्दमपहुदी बाहिरमले समुद्दिढं । ति. प. १, १०-११. ५ पुण दिदर्जावपदेसे णिबंधरूवाइ पयडिठिदिआई। अणुभागपदेसाई चउहिं पत्तेकभेम्जमाणं तु ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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